Monday, February 6, 2012

यूपी में उमा फैक्टर


उत्तर प्रदेश का जो मिजाज पिछले 20 सालों में बना है, उसमें अब भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और कांग्रेस कहीं ठहर नहीं रही है। हालांकि, हवा जरूर बना रही है, पर तल के नीचे हाल बुरा है। इन राष्ट्रीय पार्टियों की मुश्किलें लगातार बढ़ रही हैं। यह साफ दिख रहा है कि अबतक समाजवादी पार्टी (सपा) सत्तारूढ़ बहुजन समाज पार्टी (बसपा) का विकल्प नहीं बन पाई है। हालांकि, प्रदेश की जनता बसपा की वापसी नहीं चाहती, लेकिन वह सपा को भी गद्दी सौंपना नहीं चाहती। वह सपा की करतुतों को भूली नहीं है। सपा की खुली लूट और जातीय आतंक का भय अब भी उसके जेहन में है। वहीं मायावती के नेतृत्व में शासन संगठित भ्रष्टाचार का जरिया बना। इससे लोग अचंभित हैं। यहां कोई तीसरा विकल्प निकलता तो यकीनन, जनता उसकी तरफ जाती। चुनाव त्रिकोणी होता। पर ऐसा नहीं है। संगठन के मामले में तो कांग्रेस इस समय भाजपा से भी पीछे है। बिहार विधानसभा चुनाव में हार के बाद कांग्रेस लगातार पिछड़ रही है, जबकि उसके पहले कांग्रेस की हवा बन रही थी।

उत्तर प्रदेश में तीसरे विकल्प के रूप में भाजपा एक समय सामने आती दिख रही थी। सूबे की राजनीति को समझने वाले बताते हैं कि यदि प्रदेश के भाजपाई नेताओं ने उमा भारती का नेतृत्व स्वीकारा होता तो पार्टी का काया-पलट हो सकता था, क्योंकि उमा भारती के आने मात्र की सूचना से पूरे प्रदेश के कार्यकर्ताओं और समर्थकों में जो गहरी निराशा थी, वह खत्म हो गई। पार्टी में नई जान आ गई थी। प्रदेश में उमा भारती की जो सभाएं हुईं, उससे स्पष्ट हुआ कि जो जमातें पार्टी से छिटक चुकी थीं, वह भी वापस आने लगी है। अगर भाजापा की प्रदेश ईकाई के नेताओं में अंतर्कलह न होता और उनमें स्वयं को सबसे ऊपर देखने का नजरिया न रहता तो पार्टी इस विधानसभा चुनाव में अब से बेहतर स्थिति में होती। क्योंकि अन्ना आंदोलन से प्रदेश में जो माहौल बना है, उसमें आम आदमी की नजरों में कांग्रेस विकल्प बनकर नहीं आ पा रही थी। इस माहौल का फायदा भाजपा उमा भारती के नेतृत्व में उठा सकती थी।

यह भी देखने में आया कि उत्तर प्रदेश में प्रतिद्वंद्वी पार्टियों ने भी उमा भारती के आने पर ही भाजपा को नोटिस में लेना शुरू किया। राहुल गांधी स्वयं उनके पीछे पड़े। इससे साफ है कि उमा की वापसी से उन्हें अपनी जमीन खिसकती मालूम हुई। सूबे की राजनीति में उमा भारती के आने का जो असर महसूस किया गया, वह अनायास नहीं है, बल्कि वजह गहरी है। भाजपा के जो नेता आज प्रदेश में स्थापित हैं, उनसे काफी पहले से उमा भारती का इस प्रदेश से खास परिचय है। वह एक जानी-पहचानी नेता रह चुकी हैं। 1986 में जब अयोध्या आंदोलन की नींव पड़ी तो उमा भारती उसी समय से प्रदेश में पहचानी जाने लगी थीं।

हालांकि, विधानसभा चुनाव के मद्देनजर भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी का यह निर्णय कि उमा भारती चुनाव की कमान संभालेंगी और संजय जोशी संगठन का काम देखेंगे, बड़ा ही साहसपूर्ण था । इसका प्रदेश में गहरा असर हुआ। पर प्रदेश के नेताओं ने उन्हें प्रभावशून्य करने की पूरी कोशिश की। इस खींच-तान में पार्टी को जो फायदा हो सकता था, वह होता नहीं दिख रहा है। कुछ लोगों की राय यह भी है कि उमा भारती के आने से कल्याण सिंह की कमी पूरी हो सकती थी। संभवत: वह उनसे ज्यादा प्रभावशाली भी सकती थीं, क्योंकि वह महिलाओं में भी खासी लोकप्रिय हैं। पर अभी स्थिति दूसरी है। विशेषज्ञों की राय में अनुकूल परिस्थितियों में भाजपा ने अवसर गंवाया है। यह विडंबना ही है कि पार्टी अबतक मुख्यमंत्री का उम्मीदवार तय नहीं कर पाई है। ऐसे में साफ है कि उमा भारती के आने का जो फायदा पार्टी उठा सकती थी उसमें वह पिछड़ गई।

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