Sunday, November 6, 2011

अब कश्मीरियत समस्या का समाधान नहीं- दिलीप पडगांवकर

हालांकि, कश्मीर मसले पर पहले भी भारत सरकार ने कई वार्ताकार नियुक्त किए, लेकिन यह पहली समिति है, जिसने बीते 11 महीने में राज्य के सभी जिलों के हर समुदायों के प्रतिनिधियों से मिलकर उनकी समस्याओं को समझने में लगाया। इसने 12 बार राज्य का गहन दौरा किया। हर बार एक रिपोर्ट अपने अनुभव के आधार पर गृह मंत्रालय को सौंपी। उन दिनों खासकर कुछ अंग्रेजी अखबारों ने उसके बारे में खबरें इस तरह छापीं जिससे लगा कि उनके पास रिपोर्ट की कॉपी हो। वार्ताकारों के मुताबिक उन खबरों में कोई सच्चाई नहीं होती थी।

अब 13वीं और आखिरी रिपोर्ट गृह मंत्री पी.चिदंबरम को वार्ताकारों ने सौंप दी है, तब समिति के अध्यक्ष दिलीप पडगांवकर ने रामबहादुर राय और ब्रजेश कुमार से खुली बातचीत की। इस बातचीत में उन्होंने रिपोर्ट के वे अंश बताए जिससे उसके बारे में एक परिप्रेक्ष्य सामने आता है। पूरी बातचीत यहां पढ़ सकते हैं-



















दिलीप पडगांवकर


सवाल- वार्ताकार की समिति क्यों बनी ?
जवाब- 2010 में कश्मीर के हालात काफी बिगड़ गए थे। उसी वर्ष गर्मी के मौसम में पत्थरबाजी पर सुरक्षाकर्मियों की कार्रवाई में करीब 120 बच्चे मारे गए थे। इसके बाद दिन-प्रति-दिन स्थितियां बिगड़ती गईं। सितंबर, 2010 में सभी पार्टियों का एक प्रतिनिधिमंडल जम्मू-कश्मीर गया। वहां उसने सभी लोगों से बातचीत की, जिसमें अलगाववादी नेता भी शामिल थे। दिल्ली लौटकर प्रतिनिधिमंडल ने सरकार को एक रिपोर्ट दी, जिसमें कई सुझाव भी दिए गए। उस रिपोर्ट में एक सुझाव यह भी था कि भारत सरकार को एक ऐसी समिति बनानी चाहिए जो जम्मू-कश्मीर जाकर सभी क्षेत्र और वर्ग के लोगों से मिले। और फिर यह रिपोर्ट दे कि आखिर वे लोग क्या चाहते हैं। इसके बाद 13 अक्टूबर, 2010 को सरकार ने तीन सदस्यों की एक समिति बनाई। इसमें पूर्व सूचना आयुक्त एम.एम अंसारी, शिक्षाविद राधा कुमार और मैं शामिल किया गया। साथ ही मुझे इस समिति का अध्यक्ष बना दिया गया। इसके बाद जो काम हमें सौंपा गया वह यह था कि हमलोग प्रत्येक महीने जम्मू कश्मीर जाएं। वहां विभिन्न लोगों से मिलकर यह जानने की कोशिश करें कि इस राज्य की समस्या का राजनीतिक समाधान क्या हो सकता है।
हमलोगों ने अपना काम तत्काल शुरू किया। बीते 11 महीने में हमलोग 12 बार जम्मू कश्मीर गए। राज्य के सभी 22 जिलों का दौरा किया। वहां लोगों से मिले। 700 से अधिक प्रतिनिधिमंडल हमसे मिलने आए जो समाज के हर वर्ग से थे। इसमें छात्र, शिक्षक, धार्मिक नेता, मानवाधिकार संगठन और गैर सरकारी संस्था से जुड़े लोग थे। हां, राजनीतिक पार्टियां भी थीं। इस दौरान हमने तीन गोलमेज सम्मेल भी किए। दो श्रीनगर में और एक जम्मू में। पहले सम्मेलन में राज्य के तीनों क्षेत्रों (जम्मू, कश्मीर और लद्दाख) से महिलाएं आईं। सम्मेलन में उन लोगों ने अपना पक्ष रखा। दूसरे में मूलत: शिक्षाविद व बुद्धिजीवी थे। तीसरा सम्मेलन हमलोगों ने जम्मू में किया था। इसमें कला-संस्कृति से जुड़े लोग राज्य के तीनों क्षेत्रों से आए थे। आखिर में हमलोगों ने तीन नागरिक सभाएं भी की थीं। इस दौरान लोगों ने दिल की बातें बताईं। फिर इसी बातचीत को हमलोगों ने अपनी रिपोर्ट का प्राथमिक स्रोत भी बनाया।

सवाल- जब आप यह जिम्मेदारी ले रहे थे तो क्या उस समय आपके मन में कोई हिचक थी?
जवाब- हम तीनों में दो लोगों का कश्मीर से पुराना ताल्लुक रहा है। राधा कुमार पिछले 15-16 सालों से कश्मीर मामले पर काम कर रही हैं। वह कई बार वहां जा चुकी हैं। स्थानीय लोग उन्हें निजी तौर पर जानते हैं। और मैं कश्मीर मसले पर 2002 में राम जेठमलानी की अध्यक्षता में बनी समिति का सदस्य था। तब हमलोग श्रीनगर, जम्मू और दिल्ली में कई लोगों से मिले थे। इसके अलावा हम दो लोगों की कश्मीर मामले में गहरी रुचि भी रही है। पर हां, जब समिति बनी तो मन में एक तरह का शक था। वह यह कि पिछले 63 सालों में कई बड़े अनुभवी लोगों ने इस मसले को हल करने की कोशिश की है। इसके बावजूद वे सफल नहीं हो सके। ऐसे में हम आगे कैसे बढ़े और इस पेंचीदे सवालों का कैसे सामना करें, यह बात मन में जरूर थी। लेकिन, दो दौरे के बाद हमें कई चीजें महसूस हुईं। और फिर उसी के आधार पर हमलोग आगे बढ़े।

सवाल- जिस काम को आपकी समिति ने पूरा किया है, क्या ऐसे कामों के लिए पहले भी कोई समिति बनी थी?
जवाब- इससे पहले दो वार्ताकार नियुक्त किए गए थे, जिसमें एक के.सी.पंत साहब थे। दूसरे एन.एन.वोहरा साहब। लेकिन, उनके काम और हमारे काम में फर्क यह रहा कि उनकी बातचीत बहुत कम लोगों से हुई। ज्यादातर बातचीत या मुलाकातें तो सर्किट हाउस या फिर गेस्ट हाउसों में हुईं। जबकि, हमलोग ने सभी जिला मुख्यालयों और कई गांवों में जाकर लोगों से मुलाकात की है। मैं समझता हूं कि पिछले 60 सालों में ऐसी कोई समिति या टीम नहीं है, जिसने इतना सधन दौरा किया और इतने लोगों से बातचीत की हो।

सवाल-इस दौरान आपका अनुभव क्या रहा?
जवाब- अनुभव यह रहा कि राज्य के सभी इलाकों में लोग पीड़ित हैं और उसकी वजह अलग-अलग है। उन लोगों ने बातचीत के दौरान जो बताया और मेमोरेंडम दिए, उनमें से सत्तर प्रतिशत मानवाधिकार और सरकार के बारे में थे। उन लोगों ने कई बातें कहीं। एक तो उन्होंने यह बताया कि ऐसे कई कैदी हैं जो पिछले आठ-नौ सालों से जेल में बंद हैं, लेकिन उनके मामले की अदालती सुनवाई अबतक नहीं हुई है। प्रांतीय सशस्त्र बल (पीएसी) की तैनाती के बाद दिन-ब-दिन लोगों के हालात बिगड़ रहे हैं। दूसरी बात यह बताई कि नौकरी एक बड़ा सवाल है। युवकों को नौकरियां नहीं मिल रही हैं। इससे वे आतंकवादियों के साथ जा रहे हैं।
इसके बाद जब हमने उनसे राजनीतिक अभिलाषा की बात की तो पाया कि वह एक-दूसरे से काफी भिन्न है। कश्मीर घाटी के लोग अलग तरह की उम्मीद रखते हैं। जबकि, जम्मू और लद्दाख के लोग दो भिन्न तरीके से सोचते हैं। इतना ही नहीं, इन तीनों क्षेत्रों के अंदर भी लोगों की सोच अलग-अलग है। मसलन कारगिल के लोगों की राजनीतिक अभिलाषा लेह के लोगों से बिलकुल भिन्न है। ठीक उसी तरह जम्मू के पांच मुस्लिम बहुसंख्य जिलों के लोगों की राजनीतिक अभिलाषा जम्मू शहर के लोगों से भिन्न है। अब जब इतनी विविधताएं हैं और लोगों की अलग-अलग उम्मीदें हैं तो फिर इनको कैसे एक साथ संबोधित किया जाए, यह सबसे बड़ा सवाल हमारे सामने था। मैं समझता हूं कि इन सवालों से गुजरने के बाद हमने जो सुझाव अपनी रिपोर्ट में दिए हैं, उससे शायद कोई रास्ता निकले।

सवाल- आपकी नजर में कश्मीर समस्या क्या है?
जवाब- मेरी नजर में तो इसके तीन पहलू हैं। पहला तो यह कि केंद्र और राज्य का संबंध। हमलोग जानते हैं कि विलय-पत्र पर जब महाराजा हरिसिंह ने हस्ताक्षर किए थे तो उस समय भारत सरकार के पास केवल तीन विषय थे विदेश नीति, रक्षा और कम्युनिकेशन। इसके अलावा सारे विषय राज्य के अधीन थे, लेकिन उसके बाद संविधान में अनुच्छेद 370 के महत्व को धीरे-धीरे कम करने की कोशिश हुई, जिसने जम्मू कश्मीर को एक अलग पहचान दी थी। भारत सरकार के कई कानून और संविधान के अनुच्छेद वहां लागू किए गए। इससे कश्मीर घाटी के लोग नाखुश थे। लेकिन, लद्दाख और जम्मू के बहुत सारे लोग खुश हुए, क्योंकि वे लोग भारत के साथ अधिक से अधिक जुड़ना चाहते थे।
समस्या का दूसरा पहलू राज्य के आंतरिक क्षेत्रों से जुड़ा है। जैसे कि लद्दाख और जम्मू के लोग घाटी के लोगों से काफी नफरत करते हैं। वे आरोप लगाते हैं कि उनके साथ विभेदकारी व्यवहार किया गया है। यदि वे एक लाख लोग मिलकर एक विधायक को चुनते हैं तो घाटी में 83 हजार लोग एक विधायक को चुनते हैं। इसका अर्थ यह है कि घाटी के राजनेताओं को हमेशा सात सीटें अधिक मिलती हैं। हालांकि, आबादी कमोबेश एक ही है। दूसरी बात यह है कि वे लोग बताते हैं कि जम्मू कश्मीर लोक सेवा में ज्यादातर घाटी के ही लोग हैं। लद्दाख और जम्मू क्षेत्र के लोगों की संख्या काफी कम है। इतना ही नहीं, विकास निधि के नाम पर जो बजट आता है वह भी घाटी के नाम पर ही होता है। लद्दाख और जम्मू के हिस्से में तो इस बजट का नाम-मात्र ही आता है। सो इन बातों को लेकर लद्दाख और जम्मू में घाटी के खिलाफ सेंटिमेंट्स हैं। यह वहां की आंतरिक संरचना है, जिसपर पिछले 50 सालों में कई बार चर्चा हो चुकी है। बार-बार यह कहा जाता रहा है कि जबतक अधिकारों का इन तीनों क्षेत्रों में विकेंद्रीकरण नहीं किया जाएगा, तबतक स्थितियां नहीं बदलने वाली हैं।
इसका तीसरा पहलू पाक अधिकृत कश्मीर (पीओके) से जुड़ा है। लाइन ऑफ कंट्रोल (एलओसी) ने बहुत सारे समुदायों को बांट दिया है। दोनों तरफ पहाड़ियां है। गुर्जर समुदाय के लोग हैं। गिलगिट को ही लें, वहां कई परिवारों के रिस्तेदार व पुरखे गिलगिट बलचिस्तान से हैं। यहां अचरज की बात यह है कि जब हम पाक अधिकृत कश्मीर (पीओके) की बात करते हैं, जिसे वे लोग आजाद कश्मीर कहते हैं तो वहां कश्मीरी बोलने वालों या एथनिक कश्मीरियों की आबादी एक प्रतिशत से भी कम है। हमें इस जनसांख्यकीय संरचना पर भी गौर करना चाहिए। क्योंकि, 1994 की बात है। संसद की एक रिजोल्युसन है जो कहती थी कि एक ही सवाल है वह यह कि पीओके को भारत में शामिल किया जाना चाहिए। इस तरह मेरी नजर में कश्मीर समस्या के तीन पहलू हैं। पहला केंद्र-राज्य संबंध। दूसरा आंतरिक शक्ति संरचना। और तीसरा पहलू जम्मू कश्मीर व पीओके से संबंधित है।

सवाल- क्या कोई बाहरी शक्ति भी समस्या का कारण है?
जवाब- हां, सबसे बड़ा कारण तो पाकिस्तान ही है। वह शुरू से ही जम्मू कश्मीर पर कब्जा करना चाहता है। इसके लिए उसने तीन बार युद्ध भी किए। इतना ही नहीं, पिछले करीब 20 सालों से आतंकवादियों को पनाह देकर और प्रशिक्षित कर हमारे कश्मीर में जो कुछ किया है उससे सभी वाकिफ हैं। निश्चय ही कश्मीर समस्या का यह एक महत्वपूर्ण पहलू है और वह इसलिए है क्योंकि, पाकिस्तान ने इसे अपने अस्तित्व का मुद्दा बना रखा है।

सवाल- यह धारणा बनी है कि संवैधानिक व्यवस्था के अंदर ही सार्थक स्वायत्तता की सिफारिश आप लोगों ने की है?
जवाब- नहीं, हमलोगों ने ऐसी कोई सिफारिश नहीं की है। मैं तो यह कहूंगा कि पूरे रिपोर्ट में हमलोगों ने कहीं भी स्वायत्तता शब्द का भी इस्तेमाल नहीं किया है।


सवाल- कश्मीर जहां भारत का अभिन्न अंग है वहीं अनुच्छेद 370 के तहत उसे विशेष दर्जा भी प्राप्त है। रिपोर्ट में इसके बारे में क्या है?
जवाब- जब रिपोर्ट प्रकाशित होगी तो आपको पता चलेगा। पर, मैं अनुच्छेद 370 के बारे में जरूर कह सकता हूं। गृहमंत्री पी.चिदंबरम ने जम्मू कश्मीर के बारे में कहा था कि यह एक यूनीक स्टेट है। एक तरफ तो यह भारत का अटूट अंग है, वहीं दूसरी तरफ इसे एक विशेष राज्य का दर्जा भी प्राप्त है, जो अनुच्छेद 370 से मिला है। इसके अलावा जम्मू कश्मीर का भी एक संविधान है जो राज्य को भारत का अभिन्न अंग घोषित करता है। तो
जम्मू कश्मीर की ये दोनों पहचान है। वहां के लोगों की भी दो पहचान है। एक यह कि वे भारत के नागरिक हैं। और दूसरे वे स्टेट सब्जेक्ट्स भी हैं। देश में कहीं भी ऐसी दोहरी पहचान वाले लोग नहीं हैं। अब इनकी दोहरी पहचान को समझना बहुत जरूरी है। साथ ही इसे कैसे निभाया जाए, इसकी चर्चा हमने रिपोर्ट में की है।


सवाल- कश्मीर में काफी विविधताएं हैं। देश में लोगों को इसकी जानकारी काफी कम है। वे समझते हैं कि जम्मू कश्मीर एक मुस्लिम बहुल राज्य है। पर ये विविधताएं भी संरक्षित हों और लोगों की राजनीतिक और आर्थिक महत्वाकांक्षाएं भी पूरी हों, इसके लिए आपने रिपोर्ट में क्या रुख अपनाया है?
जवाब- पिछले 60 सालों से हम लगातार एक ही गलती करते आ रहे हैं और वह यह कि हमने पूरे जम्मू कश्मीर के मसले को सिर्फ और सिर्फ कश्मीर घाटी की आंखों से देखा है। मैं यह मानता हूं कि घाटी में सबसे ज्यादा हिंसाएं हुईं। वहां काफी लोग मारे गए, लेकिन यह भी सच है कि गुलाम नबी आजाद को छोड़ राज्य के सभी मुख्यमंत्री घाटी से रहे। अलगाववादी संगठनों का घाटी से ही रिश्ता रहा। इसलिए मीडिया और अन्य लोगों का ध्यान कश्मीर घाटी पर ही केंद्रित रहा। इससे लद्दाख और जम्मू क्षेत्र लगातार उपेक्षित होता गया। ऐसे में जब हम विविधता की बात करते हैं तो वह अनेक प्रकार की है। एक तो भाषाई है। राज्य में कम से कम आठ भाषाएं व बोलियां बोली जाती हैं। सांस्कृतिक विविधताएं वहां आपको काफी दिखेंगी। एक महत्वपूर्ण बात और है। यह बात जो कही जाती है कि जम्मू कश्मीर एक मुस्लिम बहुल राज्य है, एक नजर में तो यह सही है पर इसका मतलब यह नहीं कि इनके बीच फर्क नहीं है। पहला फर्क तो यही है कि सिया-सुन्नी दोनों यहां रहते हैं। राज्य में जो सुन्नी मुसलमान नियंत्रण रेखा (एलओसी) के नजदीक रहते हैं वे फकरवाल, गुर्जर, पहाड़ी आदि हैं। वे लोग अपनी भाषा-संस्कृति में कश्मीर घाटी से पूरी तरह अलग हैं। यहां डोगरा लोग हैं। इनका सम्पन्न साहित्य है। संस्कृति काफी समृद्ध है। और इनमें हिन्दू-मुसलमान का कोई मतलब नहीं है, क्योंकि ये दोनों डोगरा हैं और स्वयं को राजपूत कहते हैं। साथ ही इसपर गर्व करते हैं। यह जानकारी देश के लोगों को नहीं है। बाहर के लोगों की तो बात ही छोड़ दें। रिपोर्ट में हमने इस बात को इसलिए प्रमुखता से उठाया है, क्योंकि मैं मानता हूं कि प्रत्येक समुदाय को यह हक मिलना चाहिए कि वह अपनी सांस्कृतिक विरासत को जिंदा रख सके।

सवाल- तो क्या कश्मीरियत इनको जोड़ती है?
जवाब- हां, हमने कश्मीरियत पर भी काफी ध्यान दिया है। एक जमाने में इसका बड़ा मतलब था। और वह यह था कि अगल-अलग धर्म को मानने वाले इकट्ठा रह सकते हैं। विभिन्न संस्कृतियों में जीने-रहने वाले समुदाय एक साथ रह सकते हैं। पर मैं समझता हूं कि कश्मीरियत का यह स्वरूप अब काफी कम हो गया है। वह कुछेक क्षेत्रों में सीमित होकर रह गया है। यह सब इसलिए हुआ, क्योंकि कश्मीर वादी का जो इस्लाम था जिसे हम सूफी इस्लाम कहते हैं, वह पिछले बीसेक सालों में प्रतिक्रियावादी हो गया है। वहाबी और सलाफियों की संख्या काफी बढ़ गई है। इससे वादी का जो सूफियाना रंग था वह धीरे-धीरे धुल गया। अत: मैं अब यह नहीं समझता कि किसी भी राजनीतिक समाधान के लिए कश्मीरियत कोई आधार बन सकता है।


सवाल- इन यात्राओं के दौरान आपने वहां के प्रशासन को कैसा पाया और वहां की अर्थव्यवस्था कैसी है? क्या वहां भी भ्रष्टाचार है? इससे निपटने के आपने क्या उपाय सुझाए हैं?
जवाब- वहां सरकार काफी कमजोर है। हम सब जानते हैं कि जम्मू कश्मीर के विकास के लिए 90 प्रतिशत राशि भारत सरकार उपलब्ध कराती है, पर वे खर्च भी नहीं कर पाते हैं। ऐसा इसलिए है, क्योंकि विकास राशि के सदुपयोग के लिए जैसा प्रशासन और तंत्र चाहिए वह राज्य में नहीं है। अब बात रही भ्रष्टाचार की। यह तो सभी जगहों पर है, लेकिन जम्मू कश्मीर का भ्रष्टाचार काफी गहरा व अलग है। वहां डल झील के निकट हमने जो घर देखे, वैसा घर भारत में कहीं और देखने को नहीं मिला। सवाल उठता है कि आखिर यह पैसा आया कहां से! क्योंकि वहां न तो कोई उद्योग है। कोई कल-कारखाने भी नहीं हैं। हां, कार्पेट इंडस्ट्री जरूर है। सूखा मेवा है। थोड़ा राजमा और चावल है। फर्निचर है, लेकिन बाकी सभी चीजें तो बाहर से ही लानी पड़ती हैं। ऐसी स्थिति में भी वहां इतनी क्रय क्षमता कहां से आती है। वहां के दुकानों और मॉल्स में सामान भरे पड़े हैं। इसका एक ही मतलब हो सकता है कि वहां भ्रष्टाचार बहुत ज्यादा है। हम देखते हैं कि केरल में भी लोगों की क्रय शक्ति बहुत है तो इसका अर्थ समझ में आता है। वहां के लोग खाड़ी देशों में काम करने जाते हैं और वहां से पैसा आता है। लेकिन ऐसी स्थित जम्मू कश्मीर में नहीं है। इसके बावजदू वहां लोगों की क्रय शक्ति कैसे बढ़ रही है। इससे साफ है कि सरकार कमजोर है व भ्रष्टचार चरम पर है। इससे घाटी में एक तरह का द्वेश पैदा हुआ है। वहां लोगों के बीच गहरा असंतोष है। वे मानते हैं कि भारत सरकार कुछ नहीं कर पा रही है। उनका कहना है कि भारत सरकार पैसा तो देती है पर इस बात पर ध्यान नहीं देती कि उसका फायदा नीचे तक पहुंचा या नहीं। यही वजह है कि भारत के खिलाफ वहां भावनाएं भड़क रही हैं।
देश के दूसरे हिस्सों में आर्थिक विकास को तेज करने के लिए भारत सरकार ने जो पहल किए हैं, वह मॉडल जम्मू कश्मीर में कैसे लागू किया जाए, इस पर ध्यान देने की जरूरत है। वहां निवेश को कैसे बढ़ावा मिले, इसपर नीति बनाने पर बल देना होगा। तभी रोजगार के अवसर पैदा होंगे। मेरा ख्याल यह है कि जम्मू कश्मीर और दिल्ली के बीच एक नई आर्थिक नीति बने ताकि इन हालातों से निपटा जा सके।

सवाल- उन समूहों से बात क्यों नहीं की जो अलगाववादी माने जाते हैं।
जवाब- मैंने जम्मू कश्मीर के अपने पहले दौरे में ही कहा था कि हमलोग अलगाववादियों से मिलना चाहेंगे। उनसे बातचीत करना चाहेंगे। वे हमें बताएं कि कब और कहां मिलना है। किन शर्तों पर मिलना है आदि-आदि। पर उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया। हालांकि, इन बातों को हमलोगों ने बार-बार दोहराया। फिर हमें कहा गया कि आप उन्हें एक औपचारिक पत्र लिखें। एक-एक को वह पत्र भेजा गया, पर उनमें से किसी एक का भी जवाब नहीं आया। अब जब लोग कहते हैं कि आप उनसे नहीं मिले तो मेरा कहना है कि आप उनसे सवाल करिए कि उन्होंने ऐसा क्यों किया। हमारी तरफ से जो कोशिश होनी चाहिए थी वह हमने की। पर उनका कोई जवाब नहीं आया। और मैं यह भी जानता हूं कि उन लोगों ने क्यों बातचीत नहीं की। इसलिए मैंने कहा कि आप बताएं कि कब बातचीत करनी है, मैं तैयार रहूंगा।

सवाल- उन लोगों ने क्यों नहीं बातचीत की?
जवाब- मेरे ख्याल में वे लोग बातचीत के लिए इसलिए आगे नहीं आए, क्योंकि वे जो भी करते हैं उसके लिए उन्हें पाकिस्तान से हरी झंडी मिलती है। इससे अलग जो लोग भारत सरकार से बातचीत करने को तैयार हुए थे उनकी हत्या कर दी गई। पिछले वर्ष गनी भट्ट ने भी साफ-साफ कहा था कि हमने भारतीय सेना के ऊपर हत्या के आरोप लगाए थे, पर यह सही नहीं है। वहां के लोगों ने इनकी हत्या की थी। तब भट्ट साहब के भाई की ही हत्या कर दी गई थी। मीर वाइज के पिता की हत्या की गई थी। लोन ब्रदर्स के पिता की भी हत्या हुई थी। क्योंकि ये तीनों चाहते थे कि भारत सरकार से बातचीत की जाए। तो यहां एक तरफ डर भी है। अत: वे तब तक कुछ नहीं कहना चाहेंगे जबतक पाकिस्तान से उन्हें बातचीत के लिए संकेत नहीं मिल जाते।

सवाल-इस रिपोर्ट में समस्याओं के हल हैं या आप लोग जिन लोगों से मिले उनकी भावनाओं का प्रकटीकरण है?
जवाब-रिपोर्ट से सभी अध्यायों में वहां की परिस्थिति का विश्लेषण है। फिर कहा है कि वहां के लोग क्या-क्या चाहते हैं। इसमें बात हमने अपने सुझाव दिए हैं। मैं पत्रकार हूं इसलिए कहता हूं कि उसमें एक हिस्सा रिपोर्टिंग का है, जबकि दूसरा विश्लेषण का।

सवाल-रिपोर्ट में कितने अध्याय हैं?
जवाब- रिपोर्ट में कुल छह अध्याय हैं। छह एनेक्सचर हैं। रिपोर्ट पूरी तरह कसी(कॉम्पैक्ट) हुई है।

सवाल-आपने कहा कि रिपोर्ट में स्वायत्तता का कहीं जिक्र नहीं किया है तो मीडिया में जो चर्चा हो रही है, वह क्या है?
जवाब- उसमें कोई सच्चाई नहीं है। फिलहाल रिपोर्ट में क्या है, यह सिर्फ चार लोग ही जानते हैं। मैं, मेरे दोनों साथी और गृह मंत्री पी.चिदंबरम। यहां मैं एक बार फिर कहूंगा कि रिपोर्ट में स्वायत्तता शब्द भी आपको नजर नहीं आएगा।

सवाल- यह धारणा बनी है कि आपने तीन रिजनल काउंसिल की बात की है। स्वायत्तता न सही, पर क्या आपने इसकी सिफारिश की है?
जवाब-देखिए रिजनल काउंसिल की बात हमने नहीं उठाई है। 1950 से ही इसपर चर्चा होती रही है। शेख अब्दुल्ला साहब ने पहली बार जवाहरलाल नेहरू के सामने इस बारे में कुछ कहा था। इसके बाद इस मसले पर तीन बार चर्चा हुई। उसपर रिपोर्ट हुई। हालांकि, उसपर कोई फैसला नहीं लिया गया। इन बातों से अलग इस मुद्दे पर सबसे गहरा काम बलराज पूरी ने किया है। हम जम्मू में उनसे कई बार मिल चुके हैं और मैं इतना कह सकता हूं कि उनका हमारी रिपोर्ट पर गहरा प्रभाव है।


सवाल- इस रिपोर्ट को थोड़े से शब्दों में आप कैसे समझाएंगे?
जवाब- मैं यह कहूंगा कि जम्मू कश्मीर का बहुत कठिन मसला है। इसे हल करने के लिए इज्जत, इंसाफ और इंसानियत के आधार पर आगे बढ़कर हम कोई योजना बना सकते हैं। जम्मू कश्मीर के तीनों क्षेत्रों यानी जम्मू, लद्दाख और कश्मीर घाटी को और वहां रहने वाले विभिन्न समुदाय के लोगों को ये तीनों चीजें मिलनी चाहिए। हमने इसका बारीक विश्लेषण रिपोर्ट में किया है।
आप पाएंगे कि वहां सबसे गंभीर समस्या कश्मीरी पंडितों की है। मैं कठोर शब्दों का इस्तेमाल नहीं करना चाहता, पर जिस तरह भारत सरकार और भारतीय मीडिया द्वारा उन्हें नजरअंदाज किया गया, वह बेहद दुखद है। वे लोग घाटी से भाग दिए गए। जम्मू की झुग्गियों में उनकी नई पीढ़ी आ गई, जिसे कश्मीर के बारे में कुछ पता तक नहीं है। वे बुरी स्थिति में हैं, लेकिन किसी पार्टी ने संसद में एक बार भी उनकी समस्याओं पर सवाल नहीं उठाए, क्योंकि वे संख्या में थोड़े लोग हैं। राजनेताओं के वोट बैंक नहीं हैं। इतना ही नहीं, वहां जब 109 बच्चों की हत्या हुई तब भी उसकी चर्चा नहीं हुई, जबकि आरुषि मर्डर केस की खूब चर्चा हुई। अब वे लोग पूछते हैं, कहते हैं कि आपकी हमारी समस्या को लेकर कोई इमानदार रुचि तो है ही नहीं। बस एक राजनीतिक फुटबॉल बनकर रह गया है जम्मू कश्मीर।

सवाल-पाक अधिकृत कश्मीर के बारे में क्या कहा है?
जवाब-हमने कहा है कि वहां जो रास्ते बंद हैं उन्हें खोलना चाहिए। व्यापार बढ़ना चाहिए। परिवारों की आवा-जाही आसान कर देनी चाहिए। साथ ही धीरे-धीरे स्थानीय स्तर पर उन मसलों पर भी चर्चा होनी चाहिए जो दोनों तरफ अमूमन एक से हैं।


सवाल- आपकी सलाह क्या होगी, सरकार इस रिपोर्ट को कब सार्वजनिक करे?
जवाब- हमने कहा है कि जल्द से जल्द रिपोर्ट को पब्लिक डोमेन में लाना चाहिए। मुझे बताया गया है कि अगले दो-एक दिनों में गृह मंत्री इस मसले पर प्रधानमंत्री से बातचीत करेंगे। इसके बाद सर्वदलीय समिति दुबारा बुलाई जाएगी। उनसे रिपोर्ट पर चर्चा होगी। उनके विचार लिए जाएंगे। और फिर उसे ध्यान में रखते हुए आगे की प्रक्रिया होगी। हमारा काम 12 अक्टूबर, 2011 को समाप्त हो गया है। पर हमें बताया गया है कि सूचना प्राप्त करने के लिए हमारी जरूरत पड़ सकती है। ऐसे स्थिति में जब-जब सरकार चाहेगी, हम मौजूद होंगे।

सवाल-आपने एक बार कहा था कि हमारी रिपोर्ट से कोई खुश नहीं होगा। अब जब आपने रिपोर्ट सौंप दी है तो गृह मंत्री की क्या प्रतिक्रिया है?
जवाब- नहीं, मैंने यह कभी भी नहीं कहा। मैंने सिर्फ इतना कहा कि रिपोर्ट को लागू करने के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति चाहिए। और मैं देख रहा हूं कि अभी वह राजनीतिक इच्छाशक्ति है। इसकी वजह जरूर अलग-अलग हैं। पर वह इच्छाशक्ति है। गृहमंत्री से हमारी कई बार बातचीत हो चुकी है। हम प्रधानमंत्री से भी मिल चुके हैं। यूपीए की अध्यक्ष से भी हमारी बात हुई है। तीनों से आश्वासन दिया है कि रिपोर्ट को जल्द से जल्द आगे ले जाएंगे।