Friday, October 21, 2011

उम्मीद में किया सरहद पार


“कबीरा सोई पीर है, जो जाने पर पीड़। जो पर पीड़ ना जाने, सो काफिर बे पीर।।” दीवार पर लिखी इस पंक्ति को दिखाते हुए गोविंद राम कहते हैं, “हमारा धर्म पाकिस्तान में नहीं बचा है। हां, जो बचा पाए, उसे लेकर यहां आ गए हैं।” तब बगल में बैठी आरती ने तपाक से कहा, “वहां घर से बाहर निकलने पर लोग परेशान हो जाते थे, जबकि हमारी पढ़ने की बड़ी इच्छा जगती है। इसलिए यहां आए हैं। बड़े कहते हैं कि अक्षर ज्ञान होगा, तभी अक्ल आएगी।” आरती 13 वर्ष की है, पर सवालों का जवाब सयानी व समझदार लड़की की तरह देती है। उसकी मां सोनाली कहती है, “यह हमारी बड़ी लड़की है।” गहरी नींद में सोई दूसरी बच्ची की तरफ इशारा करते हुए कहती है, “यह दामिनी है। हमारी सबसे छोटी लड़की। तीन बच्चे और हैं। वे लोग टीवी देख रहे हैं।” यही है गोविंद राम बागड़ी का परिवार। हालांकि, बूढ़े मां-बाप वहीं पाकिस्तान में ही हैं। उन्हें छोड़कर पूरा परिवार भारत आया है। भरे मन से गोविंद कहता है, “उन्होंने तो अपनी जिंदगी करीब-करीब जी ली। हमने भी आधी काट ली, पर इन बच्चों की जिंदगी को खराब क्यों होने दें?”

दरअसल, गोविंद राम समेत कुल 19 हिन्दू परिवार के 114 सदस्य पाकिस्तान के सिंध प्रांत से दिल्ली आए हैं। सबकी परेशानी वही एक है, जिसे गोविंद राम ने अभी-अभी बताया है। फिलहाल डेरा बाबा धुणी दास आश्रम इनका ठिकाना है। इसे वे अपना पनाहगार मान रहे हैं। यह आश्रम दिल्ली के मजनू का टीला में स्थित है। अर्जुन दास बागड़ी जत्था में शामिल एक दूसरे परिवार का मुखिया है। उसने बातचीत में कहा, “हमलोग पिछले चार-पांच सालों से वीजा लेने की कोशिश कर रहे थे, पर नहीं मिल पाता था।“ फिर धीरे से कान में कहा, “भाई, वहां अमेरिका का वीजा मिलना आसान है, पर भारत का नहीं।” बातचीत में विश्वास का माहौल बना तो वे लोग खुले। बताया कि हम जैसे लोगों को वीजा मिलने में बड़ी कठिनाई आती है। वैसे तो धार्मिक यात्रा के नाम पर जत्थे को वीजा मिलना थोड़ा आसान है, पर किसी अकेले परिवार को मिलना बहुत मुश्किल है। आखिरकार हारकर हमलोगों ने भी यही रास्ता चुना। बड़ी मेहनत के बाद दिल्ली और हरिद्वार शहर का धार्मिक समारोह में शिरकत के लिए 35 दिनों का वीजा मिला था। पर उसकी तारीख गत आठ अक्टूबर को ही समाप्त हो गई है। कानूनन वे अब भारत में रहने के अधिकारी नहीं हैं, लेकिन पूछने साफ-साफ कह-बोल रहे हैं, “अब हमलोग उस दुनिया में नहीं लौटना चाहते जहां न तो हमारा धर्म सुरक्षित है और न ही हमारे बच्चे।”

जत्था में शामिल गुरमुख के परिवार में 21 सदस्य हैं। उसके माता-पिता भी साथ हैं। बातचीत के दौरान उसने बताया, “चार सितंबर को हमलोग ने बॉर्डर पार किया था।” उसकी पूरी कहानी सुनने के बाद जो बात समझ में आई, वह इस तरह है- सितंबर की पहली तारीख को सुबह-सबेरे घर-बार छोड़कर वे लोग जत्थे में शामिल हो गए थे। तब यह जत्था एक ऐसे सफर पर था जिसका परिणाम किसी को मालूम न था। जत्था में कुल 600 लोग थे। आखिरकार चार सितंबर को जत्था बाघा बार्डर पार किया। इसके बाद वे लोग कई भागों में बंट गए। जिन्हें नागपुर का वीजा मिला था, वे नागपुर की तरफ चले गए। कुछ लोग इंदौर और भोपाल गए। कुछ लोगों के पास जयपुर का वीजा था। वे वहीं रह गए। यानी कुल नौ शहरों की तरफ इन लोगों ने रुख किया। इनमें 114 लोग दिल्ली आए। वे अब भी यहीं हैं। इनमें 48 बच्चे ऐसे हैं जिनकी उम्र सात वर्ष या उससे कम है। एक बालक ऐसा भी है जो जत्था में शामिल अपने परिवार का अकेला सदस्य है। उसकी उम्र 13 साल है। पूछने पर गुरमुख ने बताया कि इसके नाम का वीजा मिल गया तो मां-बाप ने यह कहकर भेज दिया कि वे पीछे से आ रहे हैं। अब यह हर पहर उनकी राह देखता रहता है। जत्था में शामिल एक किशोर का नाम कन्हैया लाल है और उम्र 16 साल। वह अपने पांच भाई-बहनों व मां-बाप के साथ वीजा पाने में तो सफल रहा, पर किस्मत उसके साथ दूसरा ही खेल खेल रही है। वह कैंसर से पीड़ित है और फिलहाल दिल्ली के एक अस्पताल में भर्ती है। मां-बाप बेहाल हैं। अब वे कन्हैया की देख-भाल करें या अपने अन्य पांच बच्चों को संभालें। खैर, यहां ऐसी और भी कहानियां हैं, पर इतना जानना जरूरी है कि सभी विस्थापित हिन्दू परिवार पाकिस्तान के सिंध प्रांत के हैदराबाद, मठियारी, हाला आदि स्थानों से यहां आए हैं।

इस लंबे सफर में उनकी जेब भी खाली हो गई है। हालांकि, खबर सुनकर मदद के लिए कई लोग आगे आए। खाने का सामान, बर्तन और बिस्तर उपलब्ध कराया है। इससे किसी तरह वे लोग अपना गुजर-बसर कर रहे हैं। सहयोग के लिए ईश्वरदास मौजूद हैं। उनके पास पुराना अनुभव है। वे 1987 में पाकिस्तान से भारत आए थे। लंबे संघर्ष के बाद भारत में रहने की अनुमति पाई। अब वे राजस्थान के श्रीगंगानगर में रहते हैं। पूछने पर ईश्वरदास कहते हैं, “अब कोई क्या करे, मेरी नजरों के सामने इतिहास दोहरा रहा है। आज में 71 वर्ष का हूं। 24 साल पहले अपने बच्चों की हिफाजत के लिए यहां आया था। आज ये लोग आए हैं।” फिर आगे बताते हैं, “वहां के हालात बड़े खराब हैं। जबरन मजहबी तालीम दी जाती है। बच्चे उठा लिए जाते हैं। आप इनसे ही पूछो, बताएंगे।” साथ खड़े अर्जुन बागड़ी ने कहा कि वहां धर्म परिवर्तन कराया जा रहा है। अंतिम संस्कार भी नहीं करने देते हैं। हमारी लड़कियों के साथ भी अच्छा व्यवहार नहीं करते। शिकायत करने के बावजूद स्थानीय अधिकारी हमारी बात नहीं सुनते हैं। गोविंद राम ने कहा कि हाला में स्कूल और कॉलेज दोनों है। बच्चे पढ़ने जाना चाहते हैं। पर हम उन्हें स्कूल भेजने की हिम्मत नहीं जुटा पाते हैं।

खैर, वीजा की तारीख खत्म हो जाने के बाद इन लोगों का यहां रहना अवैध है, पर वे लोग चाहते हैं कि भारत सरकार मानवीय आधार पर उन्हें यहां रहने की अनुमति दे। इस बाबत वे कागजी प्रक्रिया में लगे हैं। प्रधानमंत्री कार्यालय से लेकर तिमारपुर थाने तक अपनी अर्जी पहुंचा आए हैं। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग तक संपर्क साध पूरी जानकारी दे दी है। अब जवाब का इंतजार कर रहे हैं। यूनाइटेड नेशंस हाई कमिश्नर फॉर रिफ्यूजी (यूएनएचसीआऱ) के अनुसार वे लोग जो अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए अंतरराष्ट्रीय सीमा पार करते हैं वे रिफ्यूजी यानी शरणार्थी कहलाते हैं। तो क्या पाकिस्तान से विस्थापित होकर आए इन हिन्दू परिवारों को शरणार्थी की संज्ञा दी जाएगी। हालांकि यह मामला यूएन बॉडी से जुड़ा है। पर वे लोग कहते हैं, “लोग तो हजार बातें करेंगे जी। हम भारत सरकार से इतना चाहते हैं कि वह हमें यहां कमाने-खाने की इजाजत दे ताकि हमारे इन बच्चों का भविष्य बन सके।” ह्युमन राइट लॉ नेटवर्क (एचआरएलएन) की 2007 की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत सरकार ने 2005 से 2006 के बीच 13,000 पाकिस्तानी हिन्दू को भारतीय नागरिकता दी थी। गौरतलब है कि वर्ल्ड रिफ्यूजी सर्वे-2007 के अनुसार भारत में उस समय तक 4,35,000 शरणार्थी निवास कर रहे थे।

Thursday, October 20, 2011

वे आजाद थे और आजाद रहे


“माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर । कर का मन का डार दे, मन का मनका फेर ॥” वह चिनमय मिशन ऑडिटोरियम था, जहां कबीर की ये वाणी गूंज रही थी। लोग बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री भागवत झा आजाद की शोक सभा में एकत्र हुए थे। तारीख आठ अक्टूबर थी। इस मौके पर लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार ने उन दिनों को याद किया जब उनकी पहली बार आजाद से मुलाकात हुई थी। उन्होंने कहा कि आजाद जी ने ताउम्र मुल्यों की राजनीति की। वहां कई और महत्वपूर्ण लोग थे। गृहमंत्री पी.चिदंबरम और दूसरे कई कांग्रेसी नेता भी उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करने आए। भागलपुर से लोकसभा सांसद शाहनवाज हुसैन भी थे। दरअसल, यही वह संसदीय क्षेत्र है जहां से आजाद ने राजनीति शुरू की थी। चुनकर संसद पहुंचे। पर 1989 में जब भागलपुर की जनता ने उन्हें नकार दिया तो आजाद ने सक्रिय राजनीति से ही संन्यास ले लिया। भारतीय राजनीति में ऐसे उदाहरण कम हैं।

बहरहाल, आजाद का निधन 4 अक्टूबर को दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में हो गया था। वे पिछले कुछ समय से बीमार थे और एम्स में भर्ती थे। वे पहली बार 1957 में भागलपुर संसदीय क्षेत्र से चुनकर सांसद पहुंचे थे। हालांकि, 1977 में कांग्रेस के खिलाफ हवा चली तो वे हार गए। पर भागलपुर की जनता ने 1980 में उन्हें पुन: अपना प्रतिनिधि चुना। वे फरवरी 1988 से लेकर जनवरी 1989 तक लगभग ग्यारह महीने बिहार के मुख्यमंत्री पद पर भी रहे। हालांकि, उनकी राजनीतिक सक्रियता अपने प्रदेश से अधिक केन्द्रीय स्तर पर देखी जाती थी। उनकी पहचान एक ओजस्वी वक्ता के साथ-साथ किसी के भी मुंह पर खरी-खरी सुना देने की थी। इसके कई किस्से भागलपुर में मशहूर हैं।

इन सब बातों के बावजूद 1989 के भागलपुर दंगे ने वहां की जनता और आजाद के बीच एक लकीन खींच दी। इससे आजाद काफी आहत हुए। उन्होंने राजनीति से ही संन्यास ले लिया। हालांकि, भागलपुर की जनता अंत तक उनकी राह देखती रही। उनका स्थान और दर्जा किसी दूसरे को नहीं दिया। पर वे नहीं आए। वे आजाद थे और आजाद रहे।

Friday, October 7, 2011

2जी घोटाले पर डॉ.सुब्रह्मण्यम स्वामी से बातचीत

फिलहाल देश में भ्रष्टाचार को रोकने के लिख सैद्धांतिक बहस चल रही है। आंदोलन हो रहे हैं। इस माहौल में डॉ.सुब्रह्मण्यम स्वामी मौजूदा कानून से ही भ्रष्टाचारियों को कैसे सजा दिलवाई जा सकती है, इसका उदाहरण पेश कर रहे हैं। एक बातचीत में उन्होंने कुछ प्रसंगों को बताया और समझाया है। आप भी पढ़ें-



सवाल- नियंत्रण और महालेखा परीक्षक (सीएजी) और लोक लेखा समिति (पीएसी) की रिपोर्ट से भी पहले 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले को आपने उठाया। इसकी शुरुआत कैसे हुई?
जवाब- बात 10 जनवरी, 2008 की है। उस दिन रात 9.30 बजे भारत सरकार के दो अधिकारी मुझसे मिलने मेरे घर आए। हालांकि, उन दोनों को मैं पहले से जानता था, सो हमने उनसे मुलाकात की। उन्होंने बताया कि वे बड़े दुखी और परेशान हैं। इसके बाद पूरी जानकारी दी। कहा कि “आज दोपहर 2.45 बजे एक प्रेस विज्ञप्ति जारी की गई, जिसमें कहा गया कि शाम 3.30 से 4.30 बजे के बीच जो डिमांड ड्राफ्ट लाएगा उसे 2जी स्पेक्ट्रम का लाइसेंस दिया जाएगा। इसके बाद वहां अफरा-तफरी मच गई, जबकि चंद चुने हुए लोगों को पहले से ही इसकी खबर थी। वे डिमांड ड्राफ्ट लेकर मंत्री के कमरे में तैयार बैठे थे। ऐसा मेरे जीवन में पहली बार हुआ है और हमलोग शर्म महसूस कर रहे हैं।” उनकी बातों को सुनने के बाद मेरी समझ में आया कि क्या कुछ हुआ होगा।
मैं जानता हूं कि भ्रष्टाचार का बहुआयामी असर होता है। इसलिए हमनें सही जानकारी इकट्ठा की। इससे मालूम हुआ कि 2001 में स्पेक्ट्रम का जो मूल्य तय हुआ था, वह 2008 में लगभग दस गुणा ज्यादा हो सकता है। ऐसी स्थिति में साफ था कि राजस्व को बढ़ा नुकसान हुआ है और इसमें बड़ी रिश्वतखोरी हुई है। तब मैंने 2जी मामले को उठाने का मन बनाया। एक और बात भी है। हार्वर्ड विश्वविद्यालय में जब मैं पढ़ा रहा था तो वहां कई लोग बार-बार पूछ रहे थे कि भारत में यह सब क्या हो रहा है, क्या वहां कोई आवाज उठाने वाला भी नहीं है? आखिर भारत को क्या हो गया है? यह सब सुनने के बाद इस घोटाले को उजागर करने की मेरी इच्छाशक्ति प्रबल हो गई। मैंने प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखी। स्पेक्ट्रम आवंटन में जो घोटाला हुआ, उनसब का हवाला देते हुए ए.राजा के खिलाफ मुकदमा चलाने की अनुमति मांगी। यह बात नवंबर, 2009 की है।

सवाल- अब जबकि सीएजी और पीएसी ने भी आपके आरोपों की पुष्टि कर दी है और कोर्ट भी कुछ मामलों की निगरानी कर रहा है तो इस समय आपने एक अलग मोर्चा गृह मंत्री पी.चिदंबरम के खिलाफ खोल दिया है। हालांकि, इसका जिक्र पीएसी की रिपोर्ट में भी संकेतों में है। पहले इस पर कोई विश्वास नहीं कर रहा था कि पी.चिदंबरम का भी इस घोटाले में हाथ हो सकता है, पर नए तथ्य इसकी पुष्टि कर रहे हैं। आपने जिन दस्तावेजों को आधार बनाया है, वे क्या हैं और उससे कौन-कौन सी बातें निकलती हैं?
जवाब- हालांकि, पीएसी की रिपोर्ट जून, 2011 के अंत में आई थी, लेकिन मैंने इससे पहले ही 13 मई को कोर्ट में एक याचिका दायर की थी, जिसमें कहा था कि पी.चिदंबरम के खिलाफ जांच हो। पीएसी रिपोर्ट से जो भी दस्तावेजी तथ्य बाहर आए, वे मेरे पास पहले से मौजूद थे। उसी के आधार पर मैं आगे बढ़ा। इसके बाद जब पीएसी के रिपोर्ट में भी पी.चिदंबरम का नाम आया तो इससे मुझे बड़ा बल मिला। डॉ. मुरली मनोहर जोशी ने जो रिपोर्ट लिखी है उसमें यह स्पष्ट है “वित्त मंत्री का दायित्व बनता है कि वे देश की तिजोरी की रक्षा करें, पर ऐसा लग रहा है कि वित्त मंत्री ने लापरवाही की है। अत: इसपर जरूर विचार होना चाहिए।” मेरे लिए यह भी एक आधार बना। हालांकि, बीच के दो महीने मैं विदेश में रहा, लेकिन वापस लौटने के बाद उसी कानूनी प्रक्रिया को आगे बढ़ा रहा हूं।

सवाल- इसमें अबतक अदालत में आपको कितनी सफलता मिली है?
सवाल- अभी बहस चल रही है। केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) के वकील ने केवल तकनीकी पक्ष रखा है। हालांकि मेरी तरफ से पेश किए गए हालिया साक्ष्य का उन्होंने खंडन नहीं किया है। इतना भर कहा है कि अब उन्हें चार्जसीट फाइल करनी है। इसलिए डॉ.स्वामी को इस कोर्ट में यह अधिकार नहीं है कि वे सीबीआई जांच की मांग करें।
मेरी समझ से उनका तर्क कमजोर है। वह इसलिए क्योंकि गुजरात के मामले में 2001 में सुप्रीम कोर्ट ने जो फैसला सुनाया है, उसमें कहा गया है कि चार्जशीट दाखिल करने के बाद भी सीबीआई जांच की मांग कर सकते हैं। ऐसे में उनका तर्क अधिक समय तक टिक नहीं सकता है। हालांकि, दूसरी तरफ पी.चिदंबरम के वकील भी कह रहे हैं कि लक्ष्मण रेखा पार नहीं करनी चाहिए। कोर्ट ने इसका भी कड़ा जवाब दिया है। इससे साफ है कि उनके पास कोई तर्क नहीं है। वे अबतक मेरे किसी भी सवालों का जवाब देने में सफल नहीं हुए हैं। केवल यही कह रहे हैं कि यह कोर्ट सीबीआई जांच के आदेश नहीं दे सकती है।

सवाल- सूचना के अधिकार कानून (आरटीआई) से जो नए तथ्य सामने आए हैं, क्या उन तथ्यों को आपने कोर्ट में पहले ही पेश कर दिया है ?

जवाब- मुझे नहीं मालूम कि कोई व्यक्ति आरटीआई से इन बातों की जानकारी प्राप्त करने में जुटा है। उक्त व्यक्ति ने अखबारों को जानकारी दी होगी, पर ऐसा लगता है कि किसी अखबार वालों ने इन दस्तावेजों का सही तरीके से उपयोग नहीं किया। आखिर ऐसा क्यों हुआ, यह भी सोचने वाली बात है। मेरे पास जो दस्तावेज आए उनका आरटीआई से कोई सरोकार नहीं है।

सवाल- अखबारों में आया है कि आरबीआई के गवर्नर और उस समय के वित्त सचिव डी सुब्बाराव जो ए.राजा और पी.चिदंबरम के साथ बैठक में मौजूद थे, सीबीआई उनसे भी पूछताछ करेगी। इससे आपको अदालत में कितना बल मिला?
जवाब- अखबारों में तो कई बातें नहीं आई हैं। पी.चिदंबरम के वकील ने जाने-अनजाने कोर्ट में कहा कि डॉ.स्वामी ने जो तथ्य दिए हैं, उसकी अवश्य सीबीआई छानबीन करेगी और वस्तु-स्थिति से अवगत कराने वाली एक अतिरिक्त रिपोर्ट पेश करेगी। अब उनकी बातें मेरी समझ में नहीं आती हैं, क्योंकि मेरी भी तो यही मांग है। लेकिन वे यह भी कह रहे हैं कि यह कोर्ट सीबीआई को फिर से जांच के आदेश नहीं दे सकती है।
मेरी समझ से उन लोगों को कोई रास्त नहीं दिख रहा है। हमने इतने तथ्य पेश किए हैं कि किसी के लिए भी यह कहना मुश्किल होगा कि आप ए.राजा को तो जेल भेज सकते हैं, पर पी.चिदंबरम के खिलाफ सीबीआई जांच नहीं हो सकती।

सवाल- तो क्या आप कह रहे हैं कि पी.चिदंबरम के खिलाफ सीबीआई चार्जशीट दाखिल करेगी और उन्हें इस्तीफा देना पड़ेगा?
जवाब- पहले तो उनके खिलाफ एफआईआए दर्ज होगा। फिर जांच शुरू होगी। तब सवाल उठेगा कि ऐसी स्थिति में वे मंत्री पद पर कैसे बने रह सकते हैं। इसके बाद उन्हें इस्तीफा देना होगा। मैं समझता हूं कि उन्हें जांच के आदेश मात्र से ही इस्तीफा देना होगा।

सवाल- ए.राजा से इस्तीफा लेकर उन्हें जेल में डालकर सरकार और उनकी जांच एजेंसी सीबीआई ने जो जांच की दिशा तय की, उसे पी.चिदंबरम का नाम आने के बाद बदलने को तैयार नहीं है। क्या आपको लगता है कि कोर्ट के आदेश से उसे बदलना होगा?
सवाल- आज सीबीआई एक प्रतिद्वंदी के रूप में सामने आ रही है। क्योंकि मैंने कहा है कि इस मामले में उसने ठीक से काम नहीं किया है और जान-बूझकर पी.चिदंबरम को बचाने की कोशिश की है। अब वह अपने बचाव के लिए सफाई देने में लगी है। कह रही है कि उसने ऐसी कोई गलती नहीं की है, क्योंकि इसमें कोई खास तथ्य ही नहीं है। इसके बावजूद यदि कोर्ट आदेश देती है तो सीबीआई को उसे मानना होगा। मैं समझता हूं कि आज की परिस्थिति में सीबीआई यह दिखाना चाहेगी कि आपने विरोध किया, पर कोर्ट ने हमें आदेश दिया।

मैंने कोर्ट में उस साक्ष्य को पेश किया है जिसमें ए.राजा ने कहा है कि वह स्वान और यूनीटेक को स्पेक्ट्रम नहीं बेचना चाहते थे। पी.चिदंबरम के दबाव में उन्होंने ऐसा करना पड़ा।
-डॉ.स्वामी

सवाल- पी.चिदंबरम का बचाव सोनिया गांधी समेत पूरी कांग्रेस पार्टी कर रही है। प्रधानमंत्री भी उनके पक्ष में खड़े हैं। तब न्यायपालिका की क्या भूमिका होगी?
जवाब- सरकार और उसके कामकाज के बारे में जो लोग अच्छी तरह जानते हैं वे यह समझते हैं कि प्रधानमंत्री ने पी.चिदंबरम का पक्ष नहीं लिया है। उन्होंने यह नहीं कहा है कि चिदंबरम निर्दोष हैं। हां, यह कहा है कि मेरा उनपर विश्वास है। अगर वे यह कह दें कि चिदंबरम दोषी हैं तो मामला कल ही खत्म हो जाएगा।

सवाल- राजनीतिक पार्टियां खासकर भारतीय जनता पार्टी ने पी.चिदंबरम के साथ प्रधानमंत्री को भी घेरना शुरू कर दिया है। वहीं आपका कहना है कि प्रधानमंत्री के खिलाफ कोई सबूत नहीं है। क्या यह आपकी रणनीति का हिस्सा है?
जवाब- दोनों है। दरअसल, प्रधानमंत्री को बार-बार घसीटने की जो बात होती है, सोनिया गांधी भी यही चाहती हैं। क्योंकि, वह अपने पुत्र राहुल गांधी को अब प्रधानमंत्री पद पर बैठाना चाहती हैं। मुझे इस बात की जानकारी है कि सोनिया गांधी और प्रधानमंत्री के बीच टेलीफोन पर एक बातचीत हुई है। उस बातचीत में सोनिया गांधी ने साफ-साफ शब्दों में प्रधानमंत्री से कहा है कि वे दिसंबर में पद से इस्तीफा देकर राहुल गांधी का नाम प्रस्तावित करें। हालांकि, प्रधानमंत्री ने इसका कोई ठोस जवाब नहीं दिया। उन्होंने सोनिया गांधी की बातें जरूर सुनीं। दरअसल, आज इस इटालियन परिवार में एक घबराहट है। वे लोग चाहते हैं कि मनमोहन सिंह की जगह अब राहुल को पद पर आ जाना चाहिए और यदि ऐसा नहीं हुआ तो चीजें हाथ से बाहर चली जाएंगी। उन्हें यह संदेह भी है कि डॉ. मनमोहन सिंह मन से उनके साथ नहीं हैं। यहां तक बात आ गई कि प्रधानमंत्री कार्यालय ने ही जान-बूझकर सारी सूचनाएं लिक की हैं, जबकि इसे गुप्त रखा जाना चाहिए था।
एक और बात है कि आखिर प्रधानमंत्री का इसमें दोष क्या है? क्या यह कि वे भीष्म पितामह की तरह सब कुछ देखते रहे। इसमें दो राय नहीं कि वे दोषी हैं। यह सरकार चली जाए और उसके साथ मनमोहन सिंह भी जाएं तो मुझे कोई आपत्ति नहीं है। या फिर उनकी बारी सबसे आखिर में आए। मैं सिर्फ इतना कहुंगा कि उनकी बारी जब आएगी तो कोई आपराधिक मामला नहीं बनेगा। वह नागरिक अपराध (सिविल क्राइम) का मामला होगा। इसका मतलब यह कि उन्होंने अपनी जिम्मेदारी को ठीक तरीके से नहीं निभाया।

Wednesday, October 5, 2011

विवादों में घिरा ज्ञान केंद्र




























“मुझे संदेह है कि नालंदा विश्वविद्यालय के कुलपति की नियुक्ति हो गई है ? इस सवाल के जवाब में विदेश राज्य मंत्री ई अहमद ने कहा- नहीं।“ यह सवाल-जवाब राज्यसभा की 25 अगस्त, 2011 की कार्यवाही का हिस्सा है। क्या है कि “सबसे खतरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना।” नालंदा अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय (एनआईयू) का सपना देखने वालों को पाश की यह पंक्ति रह-रहकर याद आ रही है। वे सवाल कर रहे हैं कि डॉ. गोपा सब्बरवाल कौन है? वे यह भी जानना चाहते हैं कि शांति, ध्यान और सादगी की परंपरा वाला प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय अब किस नई बुनियाद पर खड़ा हो रहा है?
ऐसा इसलिए है क्योंकि उनके सपनों का यह ज्ञान केंद्र फिलहाल सवालों से घिरा है।

इस महत्वाकांक्षी विश्वविद्यालय के पहले उप-कुलपति के बतौर डॉ.गोपा सब्बरवाल की नियुक्ति विवाद का मुख्य कारण है। पिछले दिनों पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने जब इस विश्वविद्यालय से स्वयं को पूरी तरह अलग कर लिया तो मामला और तूल पकड़ा। परियोजना को लेकर संदेह गहरा हुआ है। इस दौरान छानबीन के बाद जो दस्तावेज प्रथम प्रवक्ता के पास आए हैं वे दूसरी कहानी कह रहे हैं। इसके अनुसार विदेश मंत्रालय की तरफ से 9 सितंबर, 2010 को एक पत्र डॉ. गोपा सब्बरवाल को भेजा गया था। वह पत्र संख्या- s/321/10/2009(p) है। इस पत्र के अनुसार एनआईयू के मेंटर ग्रुप यानी सलाहकार मंडल की तरफ से डॉ.गोपा सब्बरवाल को नालंदा विश्वविद्यालय का उप-कुलपति नियुक्त किया गया है। साथ ही उनकी पगार 5,06,513 रुपए प्रति माह तय की गई है। दिल्ली के जोर बाग स्थित उनके घर पर जो सरकारी टेलीफोन लगा है वह भी एनआईयू के उप-कुलपति के नाम है। अब यह नियुक्ति कई सवाल खड़े कर रही है। क्योंकि भारत का राजपत्र इस बात की तसदीक करता है कि 25 नवंबर, 2010 से ‘नालंदा विश्वविद्यालय अधिनियम, 2010’ लागू होता है, लेकिन विदेश मंत्रालय के पत्र से पता चलता है कि डॉ.सब्बरवाल की नियुक्ति इसके 24 दिन पहले ही कर दी गई थी। आखिर यह सब कैसे हुआ लोग जानना चाहते हैं।


इतना ही नहीं नालंदा विश्वविद्यालय अधिनियम, 2010 (15.1)के अनुसार विश्वविद्यालय के उप-कुलपति की नियुक्ति का अधिकार सिर्फ राष्ट्रपति या इनके द्वारा नियुक्त विजिटर के पास है, लेकिन एनआईयू की सलाहकार मंडल ने इस भूमिका को किस आधार पर निभाया। यह भी समझ से परे है। इतना ही नहीं, अधिनियम में यह भी कहा गया है कि विश्वविद्यालय अपना मुख्यालय बिहार के नालंदा में ही खोलेगा। पर, दिल्ली स्थित आरके पुरम में आईबीसी बिल्डिंग में 22 जनवरी,2011 से नालंदा विश्वविद्यालय का कार्यालय चल रहा है। इसे विश्वविद्यालय ने 2,47,500 रुपए मासिक किराए पर लिया है। सूचना के अधिकार कानून से मिली जानकारी इन बातों की तसदीक करते हैं। हालांकि कुछ ऐसी सूचनाएं भी दी गई हैं जिससे साफ होता है कि वे तथ्य को छुपाने की कोशिश में है। एक सवाल के जवाब में कहा गया है कि मेंटर ग्रुप के लिए अपनी रिपोर्ट पेश करने के वास्ते कोई समय-सीमा तय नहीं की गई थी। वहीं दूसरे कागजात इसकी पुष्टि करते हैं कि इसके लिए नौ महीने का समय तय किया गया था। हालांकि ‘प्रथम प्रवक्ता’ यह पहले भी अपने पाठकों को इस बताता रहा है।

गौरतलब है कि पहली बार एनआईयू की कल्पना 1996 में जॉर्ज फर्नांडीस ने की थी। तब नालंदा अवशेष के निकट एक चुनावी सभा को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा था कि वे इस महान संस्था को पुनर्जीवित करने का जिम्मा लेते हैं। पर वे इसमें सफल नहीं हो पाए। इसके बाद मार्च, 2006 में तात्कालीन राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने अपनी बिहार यात्रा के दौरान नालंदा में एक अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय के होने की वकालत की। उन्होंने कहा कि यहां विज्ञान, तकनीक, अर्थशास्त्र और आध्यात्म से जुड़े दर्शन पर प्राचीन और आधुनिक संदर्भ में विस्तृत अध्ययन का केंद्र बनाया जाए। तब विदेशों से भी नालंदा के पुनरुत्थान के वास्ते सहयोग को लेकर जोरदार पहल की बात चल रही थी। इसके लिए सिंगापुर और जापान समेत कई देश आगे आकर सहयोग देने को तैयार थे। बिहार सरकार भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही थी। फरवरी, 2006 में तिब्बती धर्म गुरु दलाई लामा की अगुवाई में दिल्ली में भी एक अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन किया गया। इन सब के बीच एनआईयू की कल्पना को साकार करने के लिए भारत सरकार ने मई, 2007 में नोबल पुरस्कार प्राप्त अर्थशास्त्री प्रोफेसर अमर्त्य सेन की अध्यक्षता में एक मेंटर ग्रुप का गठन किया। इस ग्रुप से कहा गया था कि वह उच्च कोटि के अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय की स्थापना के लिए तमाम पहलुओं पर विचार कर एक प्रारूप पेश करे। इसके लिए उसे नौ महीने का समय दिया गया था, पर वह लगातार टलता रहा। दो साल बाद भी उक्त रिपोर्ट को पेश नहीं किया जा सका था।

हालांकि, 13-15 जुलाई, 2007 को मेंटर ग्रुप की पहली बैठक सिंगापुर में हुई। इस बैठक में सहयोग के लिए मेंटर ग्रुप ने एक 19 सदस्यीय सलाहकार समिति का गठन किया। इसमें केवल दो भारतीय शामिल किए गए, जिसमें एक प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की पुत्री व दिल्ली विश्वविद्यालय की प्रोफेसर उपिंदर सिंह थीं और दूसरी उनकी अभिन्न सहेली प्रोफेसर नयनजोत लाहिरी। नयनजोत लाहिरी भी दिल्ली विश्वविद्यालय में ही प्रोफेसर हैं। बाद में कायदे-कानून को बगल कर जिस गोपा सब्बरवाल को नालंदा अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय का उप-कुलपति बनाया गया है वह भी दिल्ली विश्वविद्यालय के लेडी श्रीराम कॉलेज में समाजशास्त्र की रीडर रही हैं। कहा जाता है कि इन तीनों के बीच पुरानी और गहरी जान-पहचान है। तो क्या यह संबंधों का तोहफा है? और यह सहेलियों का विश्वविद्यालय बनने जा रहा है ? लोग यही सवाल पूछ रहे हैं। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के अनुसार भी किसी विश्वविद्यालय के कुलपति पद पर प्रोफेसर की ही नियुक्ति हो सकती है। डॉ.सब्बरवाल तो प्रोफेसर से नीचे रीडर ही हैं। इतना ही नहीं एनआईयू से संबंधित अधिनियम को राष्ट्रपति की मंजूरी 21 सितंबर, 2010 को मिली थी, लेकिन इससे पहले ही 9 सितंबर, 2010 को उनकी कुलपति पद पर नियुक्ति हो गई। आखिर यह कैसे संभव हुआ। यही नहीं, कहा तो यह भी जाता है कि बतौर कुलपति डॉ. सब्बरवाल ने एसोसियेट प्रोफेसर अंजना शर्मा को एनआईयू का विशेष कार्य पदाधिकारी (ओएसडी) नियुक्त करवाया है। उनकी पगार 3,29,936 रुपए प्रति माह है।
उप-कुलपति समेत विश्वविद्यालय में नियुक्त अन्य कमर्चारियों का विवरण

इन सवालों से घिरी डॉ.सब्बरवाल ने एक बयान में कहा है कि प्रोफेसर अमर्त्य सेन की अध्यक्षता वाली सलाहकार मंडल ने मुझे योग्य पाकर ही इस पद के लिए चुना है। वैसे इस पद के लिए विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा निर्धारित योग्यता जैसी कोई शर्त एनआईयू पर लागू नहीं होती, क्योंकि एक साल पहले केंद्र सरकार द्वारा बनाए गए एक अलग कानून के तहत इस विश्वविद्यालय का गठन हुआ है। अपने बयान में उन्होंने यह भी कहा है कि डॉक्टर कलाम प्रोफेसर अमर्त्य सेन के अनुरोध के बावजूद एनआईयू का प्रथम विजिटर पद स्वीकारने को तैयार नहीं हुए थे। खबर है कि फिलहाल डॉक्टर सब्बरवाल अक्टूबर के तीसरे सप्ताह अमेरिका जाने की तैयारी कर रही हैं। उनकी योजना अमेरिका में ‘पारिस्थितिकी स्कूल’ के बाबत जानकारी एकत्र करने की है, जिसका उपयोग वह एनआईयू के लिए करेंगी। 22 सितंबर को अमेरिका के न्यूयार्क शहर में एशिया सोसाइटी के एक कार्यक्रम में प्रोफेसर अमर्त्य सेन का 45 मिनट का भाषण हुआ। इस दौरान वे उप-कुलपति की नियुक्ति पर कुछ भी कहने से बचते रहे। हालांकि, बिहार सरकार की खूब तारीफ की। गौरतलब है कि इस महत्वाकांक्षी विश्वविद्यालय के लिए बिहार की नीतीश सरकार ने 446 एकड़ जमीन उपलब्ध कराई हैं।

खैर, एनआईयू में नियुक्ति को लेकर ही नहीं, बल्कि पुनर्स्थापना को लेकर भी सैद्धांतिक भेद दिख रहे हैं। सोसाइटी फॉर एशिया इंटिग्रेशन (एसएआई) का कहना है कि प्रस्तावित बिल में नालंदा विश्वविद्यालय का उद्देश्य प्राचीन नालंदा विरासत को पुनर्स्थापित करना दर्ज है, लेकिन जो स्कूल स्थापित किया जा रहा है उसकी नालंदा परंपरा से अनभिज्ञता साफ दिख रही है। नालंदा रसायनशास्त्र, चिकित्सा, खगोल विज्ञान, धातु विज्ञान, गणित जैसे गैर धार्मिक वैज्ञानिक विषयों का शोध केंद्र भी था। परंतु मेंटर ग्रुप की अनुशंसा में विज्ञान से जुड़े किसी विषय पर अध्ययन का कोई प्रावधान ही नहीं है। मेंटर ग्रुप के अध्यक्ष को कटघरे में लेते हुए एसएआई के अध्यक्ष कहते हैं कि नालंदा परंपरा की खोज के लिए उस व्यक्ति को चुना गया जिनकी धारा, समझ और जीवनशैली बिल्कुल उलट है। नालंदा में शिक्षकों की नियुक्ति के लिए सार्वजनिक वाद-विवाद की प्रथा थी। यह परंपरा प्रजातांत्रिक और पारदर्शी थी। यहां सब उलट-पुलटा दिखाई पड़ रहा है। बतौर उप-कुलपति डॉ.सब्बरवाल की नियुक्ति ही इसका बड़ा प्रमाण है।

एनआईयू के गठन को लेकर मेंटर ग्रुप की लेट-लतीफी से परेशान होकर इसके निर्माण में सहयोग देने को आगे आए कई देश अब पीछे हटते दिख रहे हैं। शुरू-शुरू में सिंगापुर और जापान इस परियोजना को लेकर काफी उत्साही था। वे एशिया महाद्वीप की एकता के व्यापक लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए बौद्ध विरासत और साक्षा एशियाई परंपरा को मजबूत करना चाहते थे। पर ऐसा लगता है कि मेंटर ग्रुप की कार्यशैली ने इन सब चीजों पर पानी फेर दिया है।

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इन स्थानों पर हुई मेंटर ग्रुप की बैठक। साथ ही खर्च हुए रुपए का विवरण

पहली बैठक- सिंगापुर (13-15 जुलाई, 2007)- 30,92,548.00 रुपए
दूसरी बैठक- टोक्यो (14-16 दिसंबर, 2007) 38,88,243.00 रुपए
तीसरी बैठक- न्यूयार्क (2-3 मई, 2008) 56,05,010.00 रुपए
चौथी बैठक- नई दिल्ली (12-13 अगस्त, 2008) 16,04,190.00 रुपए
अंतिम बैठक- गया (28-29 फरवरी, 2009) 29,23,012.00 रुपए