Monday, June 27, 2011

‘पीर गायब’ के किस्से







"पीर गायब"
















पीर गायब से लगी बावड़ी






फिरोज शाह तुगलक वह शासक था, जिसने अपने शासनकाल में कई इमारतें बनवाईं। इन्हीं में से एक है दिल्ली के उत्तरी रिज में स्थित हिंदूराव अस्पताल से लगी एक इमारत। इसका नाम है- ‘पीर गायब’। इसी इमारत से लगी हुई एक बावड़ी भी है। पीर गायब छोटी दो मंजिला इमारत है। फिरोज शाह ने इसे चौदहवीं शताब्दी के मध्य में बनवाया था।


उस जमाने में इमारत का उपयोग शिकारगाह एवं जानवरों को तलाशने के समय किया जाता था। तब इमारत की पहचान कुश्क-ए-शिकारा के नाम से थी। हालांकि, इस जगह के बारे में कुछ और कहानियां भी मशहूर हैं। जैसे यह इमारत कभी खगोलीय प्रेक्षणा के लिए इस्तेमाल की जाती रही होगी। ऐसा इसलिए माना जाता है, क्योंकि इसके दक्षिणी कमरे की फर्श और छत को भेदता हुआ एक सुराख है जो गोलाकार रूप लिए हुए है। शायद यही वजह है कि इसका एक नाम कुश्क-ए-जहांनुमा भी है, जिसका अर्थ-विश्व दर्शन महल है। ऐसी ही दूसरी कहानी भी मशहूर है।

बहरहाल, एक अनगढ़े पत्थरों से निर्मित इस इमारत का जीर्णोद्धार अभी हाल ही में हुआ मालूम पड़ता है। दूसरी मंजिल पर पहुंचने वाली सीढ़ियां नई बनी दिखती हैं। इसके बचे अवशेषों में दो संकरे कक्ष उत्तर और दक्षिण की ओर हैं। दूसरी मंजिल पर भी दो कमरे हैं। अंग्रेजों के समय में तो इसका इस्तेमाल सिर्फ क्रांतिकारियों को पकड़ने या फिर उनकी स्थिति का जायजा लेने के लिए किया जाता था। 1857 के सैनिक विद्रोह के दौरान अंग्रेज सैनिक इस ऊंची इमारत पर चढ़कर अपनी बंदूकों से निशाना साधते थे, क्योंकि उस वक्त रिज के जंगल में यह एक ऊंची इमारत थी।

इस इमारत के अहाते में एक बावड़ी भी है जो कि इलाके में पानी की आपूर्ति के लिए बनवाई गई थी। पर आज वह एक गहरे गड्ढे के रूप में नजर आती है। आज यह भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के अधीन एक संग्रहणीय इमारत से ज्यादा हिंदूराव अस्पताल की कचरा-पेटी नजर आती है।

पढें श्रुति अवस्थी की रिपोर्ट

Friday, June 24, 2011

राजनीति में विचारनिष्ठा के पुनर्जागरण का युग आया है: उमा भारती


भारतीय जनता पार्टी की तेजतर्रार नेता साध्वी उमा भारती 2005 में पार्टी से अचानक बाहर हो गई थीं। तब उनके निष्कासन को राजनीति विश्लेषक पार्टी की अंदरूनी खींच-तान का परिणाम मान रहे थे। इसके बाद 30 अप्रैल 2006 को उमा भारती ने उज्जैन के निकट स्थित महाकाल में नई पार्टी की घोषणा की। नाम रखा- भारतीय जनशक्ति पार्टी। उस समय अपनी पार्टी को भाजपा का पुनर्जन्म बताते हुए उमा ने खुद को 'पन्ना धाय' की संज्ञा दी थी और राष्ट्रवादी विचारधारा को जीवित रखने की प्रतिज्ञा ली थी। पर, लोकप्रियता के बावजूद उनकी पार्टी को मध्य प्रदेश में कोई खास चुनावी सफलता नहीं मिली। हालांकि, इस दौरान उमा भारती गंगा अभियान से भी जुड़ी रहीं। आखिरकार 25 मार्च, 2010 को उन्होंने अपनी ही पार्टी से इस्तीफा दे दिया था। और अब सात जून को भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी ने अचानक उनके पार्टी में शामिल होने की घोषणा कर दी है। उमा भारती बताती हैं कि यह अचानक क्यों हुआ, इसकी जानकारी तो उन्हें भी नहीं है। भावी योजनाओं के साथ-साथ इस बाबत प्रस्तुत है उनसे हुई बातचीत के संपादित अंश।
श्रुति अवस्थी और ब्रजेश कुमार से हुई पूरी बातचीत के लिए प्रथम प्रवक्ता पढ़ें।


सवाल: करीब छह साल बाद भारतीय जनता पार्टी में वापसी पर क्या महसूस कर रही हैं ?
जवाब: छह साल नहीं, साढ़े पांच साल बाद। छह साल तो पूरे नहीं हुए। फिलहाल कुछ भी नया महसूस नहीं कर रही हूं, क्योंकि जब मैंने अलग पार्टी बनाई तो उसमें भारतीय जनता पार्टी के ही कार्यकर्ता थे और विचारधारा भी वही थी। यही वजह है कि भाजपा से जाना तो महसूस हुआ, पर आना महसूस नहीं हुआ। जब पार्टी से जाना हुआ तो संवाद में दूरी आ गई थी। इससे जाना महसूस हुआ, लेकिन अब जब आ गई हूं तो ऐसा महसूस नहीं हो रहा है कि कोई चीज हुई हो।

सवाल: आपके पार्टी में लाए जाने की मीडिया में कई बार खबरें आईं, पर तब ऐसा नहीं हुआ। सात जून को अचानक इसकी घोषणा की गई। इसकी कोई खास वजह थी ?
जवाब: इसकी मुझे कोई जानकारी नहीं है। हां, नितिन गडकरी जी और आडवाणी जी पिछले एक-डेढ़ साल से मुझे पार्टी में आने के लिए कह रहे थे। बाकि अचानक यह घटनाक्रम क्यों हुआ, यह मेरी जानकारी में नहीं है।

सवाल: आपके पार्टी में आने को इतना गोपनीय रखा गया कि यह खबर आई कि इसकी जानकारी खुद आपको भी नहीं थी कि सात जून को आप भाजपा में शामिल होने जा रही हैं। इसकी कोई खास वचह तो होगी।
जवाब: मैं इस बारे में कोई टिप्पणी नहीं करना चाहती। आडवाणी जी, नितिन गडकरी जी और अशोक सिंघल जी के ऊपर मेरा पूरा विश्वास है। मैं इन लोगों से किसी न किसी कारण लगातार संपर्क में रही हूं। वे लोग जो कुछ कह रहे हैं, वह सही है। मैं उनके निर्णय को ठीक मानती हूं।

सवाल: उत्तर प्रदेश के भाजपा कार्यकर्ताओं और समर्थकों की मांग पर आपको पार्टी में लाया गया। ऐसा कहा जा रहा है।
जवाब: मैं देशभर में जहां भी जाती थी भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ता मुझसे मिलते थे। वे पार्टी में आने का आमंत्रण देते थे। मैं गत दिसंबर के महीने में जब द्वादश ज्योतिर्लिंग की यात्रा पर गई थी तो वहां मंदिरों में श्रद्धालुओं का जो भी समूह मिलता था, वह एक ही बात कहता था कि आप भाजपा में शामिल हो जाइये। इसलिए मैं तो यही मानती हूं कि उत्तर प्रदेश ही क्यों, भाजपा का कोई भी कार्यकर्ता जहां भी होगा उसको इस बात से खुशी होगी कि मैं पार्टी में वापस आई हूं।

सवाल: पार्टी अध्यक्ष ने मुख्य तौर पर आपको जो जिम्मेदारी सौंपी है वह क्या है?
जवाब: उन्होंने इसकी घोषणा की है। हां, मैं गंगा से जुड़े मुद्दे को लेकर पहले से सक्रिय थी और भाजपा में भी गंगा सेल है तो मुझे उसका काम सौंपा गया है।

सवाल: उत्तर प्रदेश में जगह-जगह से खबरें आ रही हैं कि आपकी भाजपा में वापसी से कार्यकर्ता काफी उत्साहित हैं। आपके शुक्रताल तीर्थ स्थल और मेरठ के कार्यक्रर्मों से भी यह स्पष्ट हुआ। तो क्या यह माना जाए कि उत्तर प्रदेश में भाजपा को उसका स्वाभाविक नेता मिल गया है ?
जवाब: यह कोई नई बात नहीं है, इसलिए मैं ऐसा बिल्कुल भी नहीं मानूंगी। हां, मैं यह जरूर मानती हूं कि मेरे आने से वे काफी खुश हैं। मैं पार्टी से चली गई थी तो इसका उन्हें दुख था। ऐसा बिलकुल नहीं है कि उत्तर प्रदेश में कोई नया नेता आ गया है। यहां नेताओं का अभाव नहीं है।

सवाल: यह सब 2012 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव को ध्यान में रखकर किया गया है, ऐसी धारणा है। आपके सामने दिग्विजय सिंह ही कांग्रेस की ओर से यहां उपस्थित हैं। आप इस चुनौती को किस तरह देखती हैं?
जवाब: मैं व्यक्तिगत स्तर पर कभी टकराव नहीं करती। न ही व्यक्तिगत स्तर पर हमारा किसी से विरोध है। दिग्विजय सिंह मेरे बड़े भाई जैसे हैं और वे भी मुझे छोटी बहन मानते हैं। लेकिन हां, यह एक बड़ी नियती ही है कि मध्यप्रदेश में उन्हें हराने का काम मुझे मिला। इतना ही नहीं, मैं जब बिहार का काम देख रही थी तो चुनाव के दौरान वे लालू प्रसाद यादव और कांग्रेस गठबंधन का जिम्मा संभाले हुए थे और लालू के वकील की भूमिका में थे। 2003 में मध्य प्रदेश में मेरे हाथों हारने के बाद वे बिहार में भी हारे। यह अजीब बात है कि उनको मात देने का मौका मुझे ही मिलता है।


सवाल: समय बदल गया है। 2003 में दिग्विजय सिंह मध्यप्रदेश तक सीमित थे। अब आठ साल बाद वे पार्टी के महासचिव और 10 जनपथ के वास्तविक प्रवक्ता के रूप में एक राष्ट्रीय नेता की छवि पा चुके हैं। इससे आपका काम कितना कठिन होगा ?
उत्तर: मैंने आपसे पहले ही कहा कि उत्तर प्रदेश में ऐसा कुछ भी नहीं है। पहले वहां कांग्रेस तो सामने आए। हां, वहां हमें सपा और बसपा का मुकाबला करना है। कांग्रेस पार्टी वहां इतिहास का विषय बन गई है, इसलिए मैं नहीं मानती कि कांग्रेस से हमारी कोई टक्कर है।

सवाल: यही सही, पर सपा-बसपा से टक्कर के लिए ही पार्टी से आपको कितना सहयोग मिलेगा ?
जवाब- मुझे पार्टी से सहयोग नहीं चाहिए। मैं तो पार्टी की कार्यकर्ता हूं और इससे उलट यह मानती हूं कि हमारा राष्ट्रीय दायित्व है कि हम उत्तर प्रदेश में पार्टी की स्थिति को सुधारें, क्योंकि उत्तरप्रदेश से ही भारत की राजनीति में विकृतियां उत्पन्न हुई हैं। इस प्रदेश से दो प्रकार की राजनीति सामने आई। एक तो यह कि दलित वर्ग को यहां अपने दम पर सत्ता मिली। हालांकि, सबसे बड़ा दलित आंदोलन तमिलनाडु में हुआ। महात्मा ज्योतिबा फूले ने भी आंदोलन चलाया। इसके बावजूद राजनीतिक आंदोलन के द्वारा सत्ता-शीर्ष तो उसे उत्तर प्रदेश में ही मिला, जब मायावती बहुमत प्राप्त कर मुख्यमंत्री बनीं।
पर यहां सबसे बुरी बात यह रही कि जो लोग मुसलमानों के हितैषी बनते थे, उन्हीं के शासनकाल में मुसलमानों की स्थिति दयनीय हुई। डॉन-माफियाओं के साथ जुड़ाव यहीं के मुसलमानों का माना गया। प्रदेश के बुनकर-जुलाहे निरंतर बेरोजगार होते गए। कुल मिलाकर आज उत्तर प्रदेश के मुसलमानों की सबसे खराब हालत है। अत: मैं मानती हूं कि राष्ट्रीय हितों को यदि साधना है तो उत्तर प्रदेश की राजनीति में परिवर्तन लाना होगा। प्रदेश में वैचारिक धरातल पर जो आंदोलन चलते रहे हैं, उसके मूल तत्व को बाहर लाना होगा। मैं यह कदापि नहीं कह रही हूं कि उन आंदोलनों को नकारा जाए। मेरा इतना भर कहना है कि चाहे वह दलित आंदोलन हो या रामजन्म भूमि का आंदोलन, इन आंदोलनों के मूल तत्वों को निकालकर एक नए राजनैतिक आधार पर वहां सत्ता प्राप्त करने की कोशिश करनी होगी।


सवाल: ऐसे में उत्तर प्रदेश का चुनावी मुद्दा क्या होगा ?
जवाब: ‘राम’ और ‘रोटी’ दोनों मुद्दा होगा। यानी मंडल भी और कमंडल भी। जो सांस्कृतिक आंदोलन हुए हैं, वह ‘कमंडल’ है और जो सामाजिक आंदोलन हुए हैं वह ‘मंडल’ है। ‘राम-मंदिर से राम-राज्य की ओर’ यही हमारा मुख्य नारा होगा।

सवाल: लेकिन, पिछले दिनों मुजफ्फरनगर जिले के शुक्रताल तीर्थ स्थल में तो आपने एक नया नारा दे दिया है।
जवाब: आप ठीक कह रहे हैं। पर वहां मैंने कार्यकर्ताओं के बीच नारा दिया है। आम लोगों के बीच तो हम दूसरी ही बात कहने जा रहे हैं। उनसे कहेंगे कि ‘प्रदेश बचाओ और सरकार बनाओ’। लेकिन मैंने कार्यकर्ताओं को वचन दिया है कि ‘आप मुझे गंगा दीजिए, मैं आपको सत्ता दूंगी।’ मैं पूरी कोशिश करुंगी कि गंगा के कामों में भाजपा के कार्यकर्ता लगें और जनता को भी इसके लिए प्रेरित करें।


सवाल: आपने पार्टी से बाहर रहने के दौरान भाजपा और कांग्रेस दोनों ही पार्टियों को समान दूरी से देखा है। इनमें आपने क्या बदलाव देखा ?
जवाब: जब हम राजनीतिक समीक्षा कर रहे होते हैं तो कुछ चीजों का हमेशा ध्यान रखना होता है। यदि हमें अपने दल के बारे में कुछ कहना है तो हम दल के अंदर ही कहेंगे। मुझे ‘भारतीय जनशक्ति पार्टी’ में कभी कोई कमी दिखती थी तो मैं बाहर बोलने नहीं जाती थी। पार्टी के अंदर ही बैठकर बात होती थी। इसलिए जब मैं भाजपा की समीक्षा करूंगी तो पार्टी के अंदर बैठकर ही करूंगी। बाहर मीडिया के सामने तो नहीं ही करूंगी।
हां, जहां तक पूरी राजनीतिक व्यवस्था की समीक्षा का सवाल है तो मैं यह कह सकती हूं कि अभी एक समय आया है, जिसमें अचानक विचारधाराओं की अतिवादिता खत्म हुई है। जब देवगौड़ा की सरकार बनी तो उस समय वामपंथियों ने अपने आग्रह छोड़े। अपनी विचारनिष्ठाओं से कहीं न कहीं समझौता किया। फिर हमारी सरकार बनी, पर 2004 में हम नहीं जीत पाए। फिर मनमोहन सिंह की सरकार बनी तो उसे बचाने का प्रयास हुआ। इस प्रयास में जो स्थितियां बनीं, उनसब को मिलाकर एक बात कह सकती हूं कि राजनीति में विचारनिष्ठा के पुनर्जागरण का युग आया है। फिर से उसको पुनर्स्थापित करना है।

Wednesday, June 22, 2011

अन्ना के आंदोलन में भी गूंज रहे हैं गीत


‘लोकपाल-लोकपाल, पास करो लोकपाल...’, ‘जन-जन की है यही पुकार, साफ करो अब भ्रष्टाचार...’, ‘जवाब दर सवाल है कि इंकलाब चाहिए...’। ये वे गीत हैं जो आठ जून को राजघाट पर गूंज रहे थे। इससे पहले 5 अप्रैल से 9 अप्रैल तक जंतर-मंतर पर भी गाए गये थे। यकीनन, आंदोलनों की ताप से निकले नारों और गीतों का बड़ा महत्व है। कहते हैं कि इससे आंदोलन को बड़ी ऊर्जा मिलती है। इन नारों में जितना तीखापन और गीत जितने ओजस्वी होंगे, आंदोलन में उतनी ही धार पैदा होगी। पिछले आंदोलनों से अनुभव पा चुके लोगों की भी यही राय है। वैसे भी राजघाट पर खड़े होकर एकबारगी इन बातों से सहमत हुआ जा सकता है। यहां औपचारिक भाषणों के बाद दोपहर 11.00 से नारों और गीतों का जो दौर चला वह अंत तक निरंतर बना रहा। मंच और उसके आस-पास इकट्ठा हुई युवाओं की टोलियां देर शाम तक इसमें डूबी दिखीं। वे एकजुट होकर गा रहे थे, ‘देश को बनाने को एक दूजे के साथ चलें।’ या फिर ‘हम होंगे कामयाब हम होंगे कामयाब, एक दिन...।’

दिन के 11 बज रहे थे। तभी मंच से महात्मा गांधी का प्रिय भजन ‘रघुपति राघव राजा राम..’ का गायन शुरू हुआ। इसके बाद गीत-संगीत और फिर नारों ने जो बल पकड़ा वह अंत तक बना रहा। नए-पुराने गीतों व नारों के बीच कई ऐसे गीत भी सुनाई दिए जो बल पकड़ रहे जन-लोकपाल अभियान की ही उपज थे। मसलन- ‘ऐ वतन ऐ वतन ऐ वतन, जाने-मन जाने-मन जाने-मन’, ‘लोकपाल-लोकपाल पास करो लोकपाल...’ आदि। इतना ही नहीं, यहां वे फिल्मी गीत भी खूब गाए जा रहे थे जो देशप्रेम का रूहानी अहसास कराते रहे हैं। जैसे- ‘ये धरती, ये अंबर अपना है रे...आ जा रे...’। अन्ना हजारे ने लोगों को संबोधित करते हुए स्वयं गाया- ‘दिल दिया है जान भी देंगे ऐ वतन तेरे लिए..।’ भरी दोपहरी यानी 11.57 बजे लोग गा रहे थे, ‘अल्लाह तेरो नाम ईश्वर तेरो नाम।’

यहां आई छात्रों की एक टोली गीतों के माध्यम से ही अपनी बात कह रही थी। वे छात्र गा रहे थे, ‘सौ में अस्सी आदमी फिलहाल जब नासाज है, दिल पर रखकर हाथ कहिए देश क्या आजाद है... ?’। हालांकि, इसका जवाब उन्हीं के गीतों में था, जिसे उन्होंने अगली पंक्ति में साफ किया, ‘असली हिन्दुस्तान तो फुटपात पर आबाद है।’ पूछने पर इन छात्रों ने बताया कि यह ऑल इंडिया स्टूडेंट एसोसिएशन (आइसा) से जुड़ा एक सांस्कृतिक ग्रूप है जो गीतों के माध्यम से भ्रष्टाचार के खिलाफ देशभर में अलख जगाने की कोशिश कर रहा है।

लोकपाल बिल: लोक से सहमत नहीं सरकार


आखिरकार 16 अप्रैल से चली बैठक का सिलसिला असहमति के साथ थम गया है। लोकपाल बिल पर नागरिक समाज के प्रतिनिधियों और सरकार के बीच सहमति नहीं बन पाई। 21 जून को हुई अंतिम बैठक बिना किसी सहमति के खत्म हो गई। इसे देश का एक बड़ा वर्ग दुर्भाग्यपूर्ण मान रहा है। अब जब बैठकों का दौर खत्म हो गया है तो सरकार अपने पक्ष में माहौल बनाने के नुस्खे तलाश रही है। वहीं नागरिक समाज के प्रतिनिधि जन-अभियान चलाने की तैयारी में जुट गए हैं। अब कड़े बिल के प्रावधानों और सरकारी ड्राफ्ट की खामियों की जानकारी जनता को देने अन्ना हजारे देशव्यापी दौरे करने वाले हैं। ताकि अधिक से अधिक जनसमर्थन उन्हें मिले। वे कह रहे हैं, “सरकार की मंशा सख्त लोकपाल बिल बनाने की नहीं है। वह जनता में गलतफहमी पैदा कर रही है। अब 16 अगस्त से अनशन पर बैठने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। लोग सरकार को सबक सिखाएंगे। उनका आंदोलन सरकार के खिलाफ होगा। अब सख्त लोकपाल कानून बना तो ही अनशन वापस होगा।”

गत 5 अप्रैल की सुबह जब अन्ना ने दिल्ली के जंतर-मंतर पर अनशन शुरू किया था तो लोकपाल बिल आम आदमी की जुबान पर आ गया। तब अन्ना के अभियान को जोर पकड़ता देख और आगामी पांच राज्यों के चुनाव के मद्देनजर सरकार ने उनकी मांगे मान ली थी। इसके बाद बातचीत का दौर चला। हालांकि, उस दौरान कई राजनीतिक दाव खेले गए। नागरिक समाज के प्रतिनिधियों पर आरोप दर आरोप लगाए गए। उन्हें विवाद में लाने की कोशिश हुई, पर दाल गली नहीं। अंतत: चौतरफ दबाव झेल रही सरकार गंभीर हुई। अब जो बिल तैयार हुआ है उससे नागरिक समाज संतुष्ट नहीं है। प्रशांत भूषण ने सरकारी मसौदे को बेहद निराशाजनक बताया हैं। और सरकारी मसौदे को भ्रष्टाचार रोकने का मात्र प्रतीकात्मक क़दम बताया। हालांकि वे अब भी प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में लाए जाने की अपनी मांग पर क़ायम हैं।

Wednesday, June 15, 2011

रहस्य में डूबा मालचा महल


दिल्ली के पठारी इलाके को दो नाम दिए गए। एक वह है, जिसे लोग उत्तरी रिज के नाम से जानते हैं। वहीं दूसरा दक्षिणी रिज है। उत्तरी रिज एक गुलजार इलाका है। यहां सैर-सपाटे के लिए काफी लोग आते हैं। एकांत जगह की तलाश में युवाओं का जोड़ा भी इन इलाकों में खूब दिखता है। पर इसके विपरीत दक्षिणी रिज बेहद शांत और विरान जगह है। इसी दक्षिणी रिज के बिहड़ में छीपा है एक रहस्यमयी महल। चाणक्यपुरी के सरदार पटेल क्रिसेंट पर। यह ठीक भू-जल संरक्षण केंद्र के बगल में स्थित है। नाम है- मालचा महल।


इतिहास में यह दर्ज है कि इस महल को फिरोजशाह तुगलक ने दक्षिणी पहाड़ी पर बनवाया था। यह महल उसका शिकारगाह था। पहाड़ी के एक टिले पर बने इस महल में करीब दस खिड़कियां एवं दरवाजे हैं। पेड़-पौधों व झाड़ियों से घिरा यह छोटा-सा महल करीब 700 साल पुराना है। आज यह एक शाही परिवार का बसेरा है। कहा जाता है कि यह शाही परिवार अवध के नवाब वाजिद अली शाह का है। जब अंग्रेजों ने नवाब वाजिद अली शाह को नजर-बंद कर 1856 में बर्मा भेज दिया तो उनका परिवार बिखर गया था। नवाब की कई रानियां थीं तथा कई बच्चे। इन्हीं वाजिद अली शाह के बेटों में से एक का निकाह बेगम विलायत महल से हुआ था। वाजिद अली के बाद उनकी रिआसत अंग्रेजों के कब्जे में आ गई। उनके बेटे ने अपना जीवन चलाने के लिए अंग्रेजों के यहां नौकरी करने का फैसला किया। जिसकी मौत के बाद बेगम विलायत महल ने लखनऊ में अंग्रेजों से अपनी जमीन पर हिस्सेदारी मांगने की कई बार कोशिशें कीं, पर अंग्रेजी हुकुमत ने इसे मानने से इनकार कर दिया।

1947 में आजादी के बाद रिआसतों के परिवारों को पेंशन देने का इंतजाम किया गया। इसके बाद से बेगम विलायत महल को भी 500 रुपए प्रतिमाह मिलने लगा। पर 1975 में इंदिरा सरकार ने राजाओं के मिलने वाले पेंशनों को बंद कर दिया। इसके बाद बेगम अपने बच्चे रयाज व सकिना और 12 पालतू कुत्ते, चार-पांच नौकरों के साथ दिल्ली आ गई। यहां रेलवे प्लेटफार्म पर ही डेरा जमा दिया और सरकार से अपने रहने का इंतजाम करने के लिए गुहार लगाती रही। बेगम ने रेलवे प्लेटफार्म के वीआईपी वेटिंग लाउज को ही अपना वैकल्पिक आशियाना बना लिया। हटाने की कोशिश करने पर वह कुत्तों से डरातीं। साथ ही जहर खाकर आत्महत्या कर लने की धमकी भी देती थी।

आखिरकार 1984 में इंदिरा गांधी ने बेगम विलायत महल की सुध ली। उन्हें शाही महल दिलाने का वादा भी किया। हालांकि इस बीच इंदिरा गांधी की हत्या हो गई, पर 1985 में राजीव गांधी ने विलायत महल को नवाब वाजिद अली शाह का वारिस मानते हुए रहने की जगह मुहैया करवाई। यह जगह थी- मालचा महल। एक बेगम को रहने के लिए ऐसा आवास मुहैया करवाया गया जो करीब-करीब खंडहर था। जहां जंगली घास महल की दीवारों से लेकर फर्श तक उगे हुए थे। लाल पत्थरों से बने इस महल में एक भी दरवाजा नहीं था। और तो और शाही वंशजों को सियार, तेंदुआ और दूसरे जंगली जानवरों से घिरे जंगल में बिजली एवं पानी की सुविधाएं भी नहीं दी गई। यह सुविधाएं आज भी यहां मुहैया नहीं कराई गई हैं।

आखिरकार बेगम विलायत महल ने अपनी गुमनामी से तंग आकर 1993 में हीरे के चुर्ण को खाकर खुदकुशी कर ली। पर उनके अधेड़ हो चुके बच्चे रियाज और सकिना आज भी उसी महल में रहते हैं। बगैर बिजली- पानी की सुविधा के। यकीनन यह महल एक धरोहर तो है, पर गुमनाम है। खुद आस-पास के लोग भी इसके बारे में कुछ नहीं जानते। जबकि भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की पुस्तक में इसे एक धरोहर बताया गया है। दिल्ली जोन के एएसआई के निदेशक के.के. मोहम्मद ने बताया, “यह इमारत एएसआई के संरक्षण में नहीं आती।’ महल झाड़-झांखाड़ से इस तरह घिरा है कि सामान्यत: नजर भी नहीं आता है। गौर से देखने पर बाहर एक तख्ती पर नजर जाती है। उसपर लिखा है, ‘रुलर्स ऑफ अवध प्रिंसेस विलायत महल’।

पढ़ें श्रुति अवस्थी की रिपोर्ट

Sunday, June 12, 2011

पीएसी अध्यक्ष मुरलीमनोहर जोशी से बातचीत


पीएसी अध्यक्ष मुरलीमनोहर जोशी से बातचीत हुई है, यहां प्रस्तुत हैं उसकी खास बातें-

सवाल- गोपीनाथ मुंडे की अध्यक्षता में बनी ‘लोक लेखा समिति’(पीएसी) 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाले की जांच करना चाहती थी, लेकिन वह नहीं कर सकी। आपकी समिति ने उसे जांच के दायरे में लिया। तब भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) से ही आपको विरोध का सामना करना पड़ा। क्या उससे पीएसी का काम-काज प्रभावित हुआ?
जवाब- दरअसल, उस समय एक प्रकार का भ्रम फैलाया गया कि भाजपा मेरा विरोध कर रही है। मई, 2010 में मैंने जब 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाले की जांच का काम शुरू किया था तो उस समय संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) की कहीं कोई चर्चा नहीं थी और जून से लेकर सितंबर, 2010 तक हमलोग आठ-नौ बैठकें कर चुके थे। हां, यह सच है कि जेपीसी का सवाल जब उठा तो कुछ लोगों ने कहा कि साहब पीएसी काम कर ही रही है तो जेपीसी की क्या जरूरत है। तब कुछ लोगों ने यह भी कहा कि जेपीसी की मांग उठानी ही है तो पीएसी का काम क्यों हो रही है ? सदन में इसपर बहस चल रही थी। इसी बहस में से यह ध्वनि निकाली गई कि भाजपा पीएसी का विरोध कर रही है, जबकि मेरा कहना यह है कि भाजपा जेपीसी की मांग जरूर कर रही थी। यह सच है, लेकिन वह पीएसी का काम रोक रही थी, यह सही नहीं है। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) में या बाकी के कुछ लोग ऐसा कहते होंगे कि यदि आप जेपीसी की मांग कर रहे हैं तो पीएसी काम क्यों करें? यह सवाल उठता है। लेकिन, जांच के दौरान मेरे ऊपर काम को रोकने या उसकी गति को कम करने का कोई दबाव नहीं था।
इसमें दूसरी महत्वपूर्ण बात यह रही कि तब कांग्रेस ने एक नई बहस चलाई। उन लोगों ने कहा कि पीएसी के अध्यक्ष मुरली मनोहर जोशी हैं जो स्वयं भाजपा के सदस्य हैं तो फिर पार्टी जेपीसी की मांग क्यों कर रही है। मैंने उस वक्त भी कहा था कि प्रतिपक्ष जेपीसी की मांग कर रहा है। मैं प्रतिपक्ष का सदस्य हूं। जेपीसी बने। इसपर मुझे कोई आपत्ति नहीं है, पीएसी के लिए जो संवैधानिक आदेश हैं, उसके तहत वह अपना काम करेगी। उसे इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि जेपीसी बन रही है या नहीं। आखिर सुप्रीम कोर्ट तो काम कर ही रही थी। सीबीआई भी अपना काम कर ही रही थी, लेकिन जो बात फैलाई गई वह यह कि हम पार्टी से हटकर कुछ कर रहे हैं और पार्टी हमें सोमनाथ चटर्जी बना देगी। दरअसल, ऐसी बातें उन लोगों द्वारा फैलाई गई जो जेपीसी में रुचि रखते थे और उसकी तरफ ही जाना चाहते थे। यह जरूरी नहीं है कि वे केवल भारतीय जनता पार्टी के लोग हों, क्योंकि यह तो सभी जानते हैं कि जेपीसी की जांच में क्या निकलेगा और क्या नहीं? यानी उसमें अनिश्चितता है। पर यहां निश्चितता है।
मेरा अनुमान है कि जो लोग पीएसी की जांच से आतंकित और भयभीत थे, उन्होंने कोशिशें की कि पीएसी का काम न हो और जेपीसी बनती रहे।

सवाल - इनमें क्या भारतीय जनता पार्टी के भी कुछ लोग थे?
जवाब - पार्टी के किसी लोगों ने तो मुझसे ऐसी बाते नहीं कीं।

सवाल - ऐसा लग रहा था कि समिति में हर दल के लोग आपको सहयोग कर रहे हैं। आखिरकार असहयोग और बाद में विरोध का कारण क्या रहा?
जवाब – हां, 4 अप्रैल,2010 तक तो सभी लोग बड़े सहयोग की मुद्रा में थे। माननीय प्रधानमंत्री ने भी एक समय यह कहा था कि वे पीएसी के समक्ष उपस्थित होंगे। अप्रैल में ही कांग्रेस के सम्मानित सदस्यों ने पत्र लिखकर कहा कि काम बहुत हो चुका है, अब गवाहियां बंद की जाएं और रिपोर्ट लिखने का काम प्रारंभ हो। इसके बाद हमने कहा कि यह सही है कि अब रिपोर्ट लिखी जा सकती है, पर जांच के दौरान जो बातें सामने आई हैं उसकी पुष्टि जरूरी है, ताकि रिपोर्ट को अधिक से अधिक प्रामाणिक बनाया जा सके। इसके बाद 4 और 5 अप्रैल 2011 को कुछ लोग बुलाए गए, लेकिन चार अप्रैल को ही अचानक सवाल उठाया गया कि जेपीसी शुरू हो रही है तो अब पीएसी की क्या जरूरत है, फिर कहा गया कि मामला न्यायाल में है। यह भी कहा गया कि बहुत लोग बुलाए जा रहे हैं। इसके बाद मैंने कहा कि उन पत्रकारों को सुनना जरूरी है, जिन्होंने सबसे पहले इस मुद्दे को उठाया। आखिर मालूम हो कि उनके पास इसकी जानकारी कहां से आई और वे किस आधार पर लिख रहे थे, क्योंकि तब तक तो सीएजी की रिपोर्ट भी नहीं आई थी। तब हमने पत्रकार गोपीकृष्णन को बुलाया और इस बारे में पूछा गया तो उन्होंने हमें साक्ष्य दिए। इसी तरह सीएजी की रिपोर्ट में कुछ लोगों के नाम आए तो उन्हें भी बुलाया गया। इसके बाद ‘आउटलुक’ और ‘ओपन’ पत्रिका ने कुछ टेप्स छापे थे तो उन्हें भी बुलाया। टाटा का भी नाम आया। कहा गया कि इससे वे भी लाभान्वित हुए हैं तो उन्हें भी बुलाया। कुल मिलाकर यहा है कि जो बातें सामने आईं उसके सत्यापन के लिए संबंधित सभी लोग बुलाए गए।
इसके बाद तय किया गया कि संबंधित विशेष अधिकारियों यानी प्रधानमंत्री के सचिव, केंद्रीय सचिव, विधि सचिव और तत्कालीन सॉलिसिटर जनरल को बुलाकर बातचीत का दौर खत्म हो और रिपोर्ट को 30 तारीख तक पूरा किया जाए। यह फैसला 4 अप्रैल को समिति की बैठक में लिया गया, क्योंकि दूसरी तरफ से रिपोर्ट को जल्दी पूरा करने के लिए लगातार पत्र आ रहे थे। लेकिन, 15 अप्रैल को लोगों के रुख बदले हुए थे। नजारा था कि ‘बदले-बदले से मेरे सरकार नजर आते हैं।’ दोपहर दो बजे तक वही सवाल जेपीसी, पीएसी, सब-ज्यूडिस। लोकसभा अध्यक्ष ने पत्र लिख दिया था कि आप अपना काम करें। वे अपना काम करेंगे। मैंने उन्हें बता दिया कि हम कहां तक पहुंच गए हैं। जेपीसी तब शुरू भी नहीं हुई थी। उनकी पहली बैठक 18 मई को होने वाली है, जबकि 30 अप्रैल को हमारा कार्यकाल खत्म हो रहा था। वैसे भी हम एक दूसरे के काम को कहीं भी आच्छादित नहीं कर रहे थे। दोनों की जांच का दायरा भी अलग-अलग है। हम जांच कर रहे थे- रीसेंट डवलपमेंट इन टेलीकॉम सेक्टर इनक्यूडिंग ए लोकेशन ऑफ स्पेक्ट्रम 2-जी एण्ड 3-जी सेक्टर। जबकि वे जांच कर रहे हैं- 1998 से लेकर 2009 तक की बनी नीतियों की। इसके बावजूद विरोध जारी रहा। दोपहर तक विरोध जारी रहा। अंततः आम राय पर बुलाए गए अधिकारियों से दोपहर बाद बातचीत शुरू हुई। लेकिन पहली बार लोगों को यह कहते देखा-सुना गया कि- कोई सवाल न पूछा जाए। न ही कोई जवाब दिया जाए। इस हंगामे के बीच विधि सचिव से बात पूरी हुई। इसके बाद प्रस्ताव आया कि अगली पूछताछ तबतक न की जाए, जबतक उनके कुछ प्रश्नों का उत्तर न दे दिया जाए। हमने कहा कि ठीक है, कल बैठते हैं। पर, 21 अप्रैल को बैठक तय हुई। उस दिन भी वही हंगामा खड़ा कर दिया गया। कोई परिणाम नहीं निकला। आखिरकार 28 तारीख को पुनः बैठक तय हुई। समिति का पहले से ही फैसला था कि रिपोर्ट 30 अप्रैल, 2011 तक सौंपनी है। इसे ध्यान में रखते हुए ही लंबित मामलों की संस्तुति के लिए 26 तारीख को ही रिपोर्ट की कॉपियां सदस्यों को दी गईं ताकि संशोधन व सुझाव के साथ वे अपनी संस्तुति दे सकें। पर, 27 तारीख को पूरी की पूरी रिपोर्ट बाहर आ गई। इसके बाद कांग्रेसी सदस्यों ने एक प्रेसवार्ता भी कर दी, जिसमें कहा गया कि रिपोर्ट बाहर से लिखवाई गई है और यह डॉ. जोशी की रिपोर्ट है। साथ ही यह भी कहा गया कि रिपोर्ट को खारिज करो, इसमें हमारे प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री का नाम इंगित किया गया। हम इसे कैसे मान सकते हैं। उसी दिन पवन बंसल जी और नारायण स्वामी जी रेवती रमणजी के घर गए। टेलीविजन में उनका आवागमन व रेवती रमणजी का वक्तव्य दिखाया गया है। उन्होंने कहा कि आप जोशी जी के साथ क्यों हैं। आप हमारे साथ आइए। अरे, यहां जोशीजी कौन हैं? मैं कोई पक्षकार हूं क्या? यह रिपोर्ट तो लोकसभा सचिवालय की है, वहां तैयार हुई है। इसे मैंने नहीं लिखा है।
इसके बाद मेरी समझ में आया कि वे हंगामा आगे भी करेंगे। नियम यह है कि पीएसी की रिपोर्ट में कोई विमति नहीं होती है। विमति की टिप्पणी की इजाजत नहीं है। रिपोर्ट जब सभी सदस्यों के पास पहुंच जाती है तो उसके एक-एक पैरे पर विचार होता है। उसके बाद यदि कहीं कोई संशोधन करना है तो वह प्रस्तुत किया जाता है। फिर आम राय से उसे स्वीकार किया जाता है। अन्यथा नहीं। शब्द यह है कि ‘रिपोर्ट इज एडॉप्टेड वीद और वीदाउट अमेंडमेंट्स’। वहां कुछ लोगों ने गलतियां बताई, हमने उसे स्वीकार किया। कुछ लोगों ने संशोधन की बात की, वह भी हुआ। लेकिन, कई सदस्य बहस करने को तैयार नहीं थे। आते ही रिपोर्ट खारिज करने के नारे लगाने लगे। ठीक वैसे ही जैसे जंतर-मंतर के चलने वाला जुलूस किसी बिल के पास करने या न करने के नारे लगाते हुए संसद पहुंच जाता है। ठीक वही स्थिति थी। दूसरी तरफ नीचे कांग्रेस संसदीय पार्टी के दफ्तर में चार मंत्री बैठे हुए थे, जिनमें चिदंबरम जी, कपिल सिब्बल जी, पवन बंसल जी और नारायण स्वामी जी। वे लोग वहां से अपने लोगों को दिशा-निर्देश दे रहे थे। जैसे ये लोग कठपुतलियां हों। ये परिस्थिति थी, बोलने नहीं दिया जा रहा था। अंततोगत्वा जो संशोधन आए, उसे हमने स्वीकार कर लिया और बैठक को समाप्त कर दिया। इसके बाद जो नाटक हुआ, वह सभी को मालूम है।

सवाल - रिपोर्ट एडॉप्ट (स्वीकृत) हुई या नहीं?
जवाब - रिपोर्ट एडॉप्टेड ही है, क्योंकि सदस्यों के बीच रिपोर्ट बांटे जाने के बाद जिन्हें सुझाव देना था, उन्होंने दिया। जिन्हें नहीं देना था, उन्होंने नहीं दिया। उसे बाद सीएजी ने बैठक बुलाई और हमने उसमें रिपोर्ट पेश कर दिया। यही अंतिम चरण होता है। हमने रिपोर्ट ही पेश किया है। कोई रद्दी के कागज नहीं दिए गए हैं।

सवाल- क्या आपकी अध्यक्षता वाली पीएसी ने 2-जी के अलावा भी कोई जांच की है?
जवाब- हमने 2-जी और 3-जी की जांच की है। हमारा यही विषय था।

सवाल- इसके अलावा कोई और रिपोर्ट आई है?
जवाब - पहले आई हो तो आई हो, मुझे मालूम नहीं है। हां, इसके अतिरिकत हमने अन्य मामलों में रिपोर्ट सौंपी है।

सवाल - वह कौन सी है?
जवाब - एक तो ‘राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन’ को लेकर है। दूसरी ‘त्वरित सिंचाई लाभकारी योजना’ ये दो बड़ी रिपोर्ट सौंपी हैं। इसके अलावा उप-समिति की भी कई रिपोर्टें हैं। करीब 10-11 रिपोर्ट सौंपी गई है।

सवाल - कांग्रेस और द्रमुक के सदस्यों को किन सिफारिशों पर एतराज था?
जवाब - वह यह था कि हमने प्रधानमंत्री, वित्तमंत्री और ए.राजा का नाम रिपोर्ट में क्यों शामिल किया है। हालांकि, हमने वही नाम रिपोर्ट में शामिल किए जो साक्ष्य से सामने आए और जिनका जिक्र फाइलों में था। इसके अतिरिक्त रिपोर्ट में कुछ भी नहीं है।

सवाल - समिति की सिफारिशों में एक जगह मांग की गई है कि इस रहस्य की जांच की जाए कि वित्त मंत्रालय दोषी है या दूर संचार विभाग?
जवाब- यहां दोनों की अलग-अलग भूमिका है। दूर-संचार मंत्रालय में जो गड़बड़ियां हुईं और उसमें दूर-संचार मंत्री को जो भूमिका रही यह एक अलग प्रश्न हैं। इसमें वित्त मंत्रालय की भूमिका दूसरा प्रश्न है। प्रश्न ऐसा है कि अक्टूबर, 2003 में एक मंत्रि-परिषद का फैसला आया था, उसमें तय किया गया था कि स्पेक्ट्रम की कीमत का निर्धारण दूर-संचार और वित्त मंत्रालय मिलकर करेंगे। यहां परामर्श से नहीं है, बल्कि साथ-साथ तय करने की बात कहीं गई थी। वित्त मंत्रालय को इस नियम का पालन करना था। यह उसका अधिकार था। पर मंत्रालय ने एक सीमा के बाद अपने कर्तव्य का पालन नहीं किया।
वहीं दूर-संचार मंत्रालय को मिलकर मूल्य का निर्धारण करना था। मंत्रालय ने इससे बचने की कोशिश की। गलत सलाहें प्रधानमंत्री को दी। साथ ही जो नोटिंग्स आईं, उसमें वह हिस्सा जो इस घोटाले में बाधक हो सकता था, उसे मंत्री ने अपने हाथ से काटकर हटा दिया। वित्त सचिवालय के सलाहकार की तरफ से जो बाते कहीं गई, उसे नजरअंदाज कर दिया। इतना ही नहीं, लेटर ऑफ इनटेंट (एलओआई) देने में जो तरीका अपनाया गया उससे साफ है कि कुछ कंपनियों को फायदा पहुंचाने के लिए पक्षपात पूर्ण रवैया अपनाया गया। कंपनियों के नाम के साथ जब 9 जनवरी, 2008 को इकनॉमिक टाइम्स में खबर आई कि अगले दिन निम्न 10 कंपनियों को एलओआई दिए जाएंगे और निम्न 10 को नहीं, तो लोगों का ध्यान इस तरफ गया। अगले दिन यानी 10 जनवरी को वही हुआ। तब भी वित्त मंत्रालय ने कोई सवाल नहीं किए।

सवाल- इसमें क्या पी. चिंदबरम भी उतने ही गुनहगार हैं जितने ए. राजा?
जवाब - मैंने कहा कि उनका यह धर्म था कि वे इस सरकारी खजाने की लूट को रोकते, लेकिन उन्होंने यह नहीं किया।

सवाल - अपने रिपोर्ट में यह भी लिखा है कि उन्होंने प्रधानमंत्री को सलाह दी थी कि बजाय इसकी जांच के मामले को बंद किया जाए।
जवाब - उन्होंने कहा कि जो हो गया, सो हो गया अब मामले को बंद समझा जाए। इतना ही नहीं, प्रधानमंत्री को लेकर भी हमने कहा है कि प्रधानमंत्री कार्यालय को इन बातों की जानकारी थी। सभी काम उनकी जानकारी में हो रहे थे। और वे ए.राजा के पत्र लिख रहे थे कि यह सब क्या हो रहा है। मेरे पास शिकायतें आ रही हैं। इसे देखा जाएं। वहीं ए.राजा ने जवाब दे दिया कि यहां सब ठीक है। कोई गड़बड़ी नहीं है। पूरी ईमानदारी व नीतियों के अनुरूप काम हो रहा है।
यहां हमारा प्रश्न यह है कि कैबिनेट सचिव और प्रधानमंत्री के प्रधान सचिव इस मामले में क्यों चुप बैठे रहे, आखिर कैबिनेट के फैसले का क्रियान्वयन करवाना किसकी जिम्मेदारी है? क्या कैबिनेट सचिव की यह जिम्मेदारी नहीं है, प्रधानमंत्री कार्यालय की नही हैं?
रिपोर्ट में यह भी इंगित किया है कि आखिर ऐसा क्यों हो रहा है कि एक सचिव कहता है कि गलत हो रहा है, पर वह मंत्री के आगे झुक जाता है। क्या वह अच्छे पद के लोभ में एसा करता है? हमने कहा कि यदि किसी सचिव को पता चलता है कि गलत हो रहा है या मंत्रिपरिषद के फैसले के विरुद्ध हो रहा है तो ऐसी व्यवस्था हो या फिर उसे इजाजत होनी चाहिए कि इसकी जानकारी कैबिनेट सचिव और प्रधानमंत्री कार्यालय तक पहुंचा सके। जिससे देश के साथ होने वाले इन अपराधों को रोका जा सके। लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है और परिणाम यह है कि घोटाले पर घोटाले हो रहे हैं।

सवाल - इससे सवाल निकलता है कि कहीं प्रधानमंत्री, वित्त मंत्री और राजा लाचार दिख रहे हैं यानी उनपर कहीं बाहर से दबाव पड़ रहा है।
जवाब - निष्कर्ष निकालने के लिए लोग स्वतंत्र हैं। हां, जो तथ्य आए हैं, उसे हमने सामने रख दिया है। इसलिए हमने कहा है कि इसका उत्तर राष्ट्र चाहता है कि प्रधानमंत्री कार्यालय, वित्त मंत्रालय, कैबिनेट सचिवालय से ऐसा क्यों हुआ? इसका स्पष्टीकरण उन्हें संसद को देना है।

सवाल - आपने रिपोर्ट में टिप्पणी की है कि मंत्रालयों और विभागों के काम-काज में गंभीर प्रणाली गत कमियां आ गई हैं और इसकी जड़ें काफी गहरी हैं। थोड़ा इसे समझाएं।
जवाब - प्रणाली में यह व्यवस्था स्पष्ट होनी चाहिए कि सरकार के जो फैसले हैं उसके ठीक तरीके से क्रियान्वयन की जिम्मेदारी किसकी है। कैबिनेट का जो सचिव है वह पूरी कैबिने का सचिव है। वह प्रधानमंत्री का सचिव नहीं है तो उसका यह धर्म है कि वह इस बात पर पैनी निगाह रखे कि कैबिनेट के जो फैसले हैं उसका ठीक तरीके से क्रियान्वयन हो रहा है या नहीं। अगर नहीं उसमें कहीं भटकाव या विचलन हो रहा है तो वह उसे तत्काल ठीक करे। लेकिन, आज प्रणाली में जो व्यवस्थाएं है यानी संसदीय कार्यों के क्रियान्वयन के नियम हैं उसमें यह व्यवस्था स्पष्ट नहीं है। वह कह देता है कि मेरी जिम्मेदारी नहीं है, हमने कैबिनेट का फैसला उक्त मंत्रालयों को भेज दिया है और आशा करते हैं कि वह इसका पालन करेंगे। यदि कोई बदलाव चाहता है तो इसकी सूचना देगा। हमारी राय में यह ठीक नहीं है, क्योंकि यदि कोई मंत्रालय कैबिनेट के फैसले को बदल रहा है या उसकी गलत व्याख्या कर रहा है तो इस पर रोक लगने की कोई व्यवस्था नहीं है।
इसी तरह यह प्रधानमंत्री कार्यालय की भी जिम्मेदारी हैं, क्योंकि कैबिनेट के अध्यक्ष प्रधानमंत्री होते हैं। कार्यालय उन्हें बताए कि यह फैसला है और ऐसा हो रहा है। यहां तो सभी एक दूसरे पर ही जिम्मेदारी थोपते नजर आते हैं। यह ठीक नहीं है। एक और बात, यह नियम है कि कोई मंत्री बगैर विधि मंत्री की इजाजत के किसी विधि अधिकारी को सलाह लेने के लिए नहीं बुला सकता है। अब इस पर कौन नियंत्रण रखेगा। यहां विधि मंत्री लिख रहे हैं कि यह मामला मंत्रियों के समूह को जाना चाहिए, वहीं विधि अधिकारी कुछ और ही बात कह रहा है। तो ये खामियां हैं। इतना ही नहीं, यदि नीचे से कोई फाइल टिप्पणियों के साथ आ रही है तो उस टिप्पणी को ही बदल दिया गया। अब यह कौन देखेगा, सीवीसी, सीबीआई निदेशक, सीएजी की नियुक्ति कैसे होगी? हाल ही में हम लोगों ने सीवीसी की नियुक्ति का मामला देखा। सीबीआई भी साल भर तक इस मामले को दबाए रखी। हमने इस बारे में उनसे पूछा कि क्या आप पर कोई दबाव था।

सवाल - रिपोर्ट में आपने वित मंत्री के 15 जनवरी, 2008 के नोट का जिक्र किया है और कहा है कि उन्होंने प्रधानमंत्री जी को लिखा है कि हालांकि नुकसान हुआ है पर अब इस मामले को समाप्त समझा जाना चाहिए। क्या आपका इशारा पी. चिदंबरम की तरफ है? अगर है तो ऐसा क्यों कह रहे हैं?
जवाब - हम नहीं जानते। हमने तो उनसे कहा कि इसकी व्याख्या की जाए, कि ऐसा क्यों हुआ। वे स्पष्टीकरण दें। संसद चाहती है कि वे सच बताएं।

सवाल - अपने सिफारिश की है कि इसकी व्यापक जांच होनी चाहिए। क्या आपको उम्मीद है कि जांच होगी?
जवाब - संसदीय समिति की रिपोर्ट पर सरकार को कार्यवाही करनी पड़ती है। यह उसके धर्म है कि रिपोर्ट को गंभीरता से लें और इस पर अपना गंतव्य दें। यदि वह जांच नहीं करना चाहती है तो यह भी बताए कि इसके क्या कारण हैं।

सवाल - आपने रिपोर्ट में अपनी-अपनी सिफारिश में लिखा है कि प्रधानमंत्री की यह इच्छा कि पीएमओ इस मामले से दूरी बनाए रखे, संचार मंत्री को अनुचित व मनमानी तरीके से काम करने में अप्रत्यक्ष तरीके से योगदान दिया।
जवाब - उन्होंने लिखा है कि घोटाला हो गया, अब पीएमओ उससे दूर रहे। इसका क्या मतलब है? जो होगा सो गया। अब उसे बंद डब्बे में डाल दो। इसलिए हमने पूछा है कि देश को बताया जाए कि ऐसा क्यों हुआ और किन वजहों से ये बाते कहीं गईं।

सवाल - अपनी जांच में जब आपने यह कहा तो प्रधानमंत्री की जो इमेज है और जो वास्तविकता है उसमें फर्क दिखता है।
जवाब - देखिए, किस मंत्री की या प्रधानमंत्री की क्या इमेज है इसमें हमें मतलब नहीं है। यह अलग मसला है। हमारा ध्यान केवल तथ्य की तरफ रहा है और वह यही है। हम न तो किसी की इमेज हैं और न बिगाड़ते हैं। हां, जो तथ्य है उसे संसद के सामने रख देते हैं।

सवाल - आपकी रिपोर्ट में प्रधानमंत्री कार्यालय और प्रधानमंत्री में असामंजस्य का संकेत मिलता है। क्या इस कारण भी सरकारी खजाने को बहुत नुकसान हुआ?
जवाब - यह भी हमने जानना चाहा है कि आखिर ऐसा क्यों हुआ? कोई तो अपनी जिम्मेदारी ले। और सरकार किसी इसका जिम्मेदार मानती है यह तो बताए।
दखिए, हम अदालत नहीं है। हम संसदीय समिति हैं? हमारा काम तथ्यों को संसद के सामने रखना है। और उन तथ्यों के आधार पर सरकार को आगे क्या कार्यवाही करनी है, इसका सुझाव देना है। कार्यवाही करना या न करना यह सरकार की जिम्मेदारी है। अगर कार्यवाही की गई तो उसके बारे में बताएगी। यदि नहीं की गई तो इसके कारण बताएगी। पीएसी की रिपोर्ट का इसी प्रकार से निस्तारण होता है। सरकार को एक एक्शन टेकन रिपोर्ट देनी होती है।

सवाल - समिति ने सीबीआई के लिए अलग अधिनियम बनाने और उसे ज्यादा समर्थ बनाने के सुझाव दिए हैं। क्या सीबीआई को सरकार अधिक समर्थ बनाना चाहती है?
जवाब - यह मैं कैसे बता सकता हूं। यह तो सरकार ही बताएगी। अगर नहीं बनाना चाहती है तो वह एक नया संदेह पैदा करेगी। एक तरफ हम पारदर्शिता की बात करते हैं। प्रधानमंत्री जी कहते हैं कि जनता की राय बदल रही है। भ्रष्टाचार के खिलाफ वे जल्दी कार्रवाई चाहते हैं। अगर वे सचमुच जल्दी कार्रवाई चाहते हैं तो कार्रवाई करने वाली जो एजेंसी है उसे अधिकार दिया जाए। साधन दिए जाएं। अभी वहां तो हजार-डेढ़ हजार जगहें खाली हैं। साथ ही उसे जिम्मेदार बनाया जाए। साथ ही वह प्रत्येक छह महीने पर अपनी रिपोर्ट संसद में प्रस्तुत करे। साथ ही सीबीआई निदेशक को नियुक्ति प्रधानमंत्री, उच्चतम न्यायालय के एक न्यायाधीश, गृहमंत्री और नेता प्रतिपक्ष की समिति करे। इससे पारदर्शिता आ जाएगी। सीएजी की नियुक्ति में गृहमंत्री की जगह वित्त मंत्री को रखा जाए। यदि सरकार कोई और फार्मूला लाना चाहती है तो वह बताए। लेकिन इच्छा और नाराजगी पर ये नियुक्तियां नहीं होनी चाहिए। पुरस्कार देने या दंडित करने के लिए भी नहीं होना चाहिए।

सवाल - सीवीआई की जो इस मामले में जांच चल रही है। क्या आप उससे संतुष्ट हैं?
जवाब - अब जो जांच चल रही है, वह ठीक दिशा में जा रहे हैं। उनकी अपनी एक सीमा है पर उच्चतम न्यायालय की निगरानी में काम कर रहे हैं तो ज्यादा गड़बड़ी नहीं हो सकती है। हमारे सामने भी उन्होंने जो तथ्य रखे हैं वह निः संकोच हमें दी।

सवाल - कांग्रेस इस रिपोर्ट को सिर्फ मसौदा बता रही है। आपका क्या मत है?
जवाब - यह रिपोर्ट है। नियमों के अनुसार हमने पेश किया है। और अगर मसौदा भी था तो उसपर बहस तो करनी चाहिए थीं दरअसल, वे कहते हैं कि यह रिपोर्ट हमने रद्दी की टोकरी में फेंक दिया। पवन बंसल का यह बयान है। यह बेहद खतरनाक बयान है।
देखिए, हमारा काम यह देखना है कि आज आम आदमी के टैक्स सरकारी कोष में आई जो धनराशि है, उसका सदुपयोग संसद की इच्छा और अनुमोदन के अनुरूप हो रहा है या नहीं। साथ ही इस बात पर भी नजर रखना है कि इसका लाभ आम आदमी को मिल रहा है या नहीं। हमने राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन में देखा कि लाखों रुपए की वैसी दवाइंया जिनकी तिथि समाप्त हो गई है, वह रखी हुई है। इमारतें बनी हैं तो उसमें गोबर भरा हुआ है। डाक्टर नहीं है। तो सवाल पूछने का हक है। संसद सदस्य होने के नाते हमारा कर्तव्य है कि हम अपने मतदाताओं के हितों का ध्यान रखें। साथ ही पीएसी के अध्यक्ष होने के नाते भी दायित्व है कि इसे देखें। अब अगर इस जांच को रोका जाता है तो यह धनाडयों के पक्ष में और गरीब आदमी के विरोध में लिया गया फैसला होगा। यहा उसके अधिकार पर डाका डाला जा रहा है। हम कहते हैं कि घोटाले न होते तो यह रुपए गांव के विकास के लिए मिलते। आप कहते हैं कि इसकी जांच बंद करो जो लूट गए, सो लूट गए। यानी गरीब की लूट और धनपति की छूट। यह काम हम नहीं होने देंगे। इसलिए जब वे कहते हैं कि हमने रिपोर्ट कचरे के डब्बे में डाल दी, तो पहली बात यह कि वे आम आदमी के पेट पर डाका डाल रहे हैं, उनके स्वास्थ्य, पढ़ाई-लिखाई और रोजगार पर डाका डाल रहे हैं।
इसका दूसरा पक्ष यह है कि आज वे इस संसदीय रिपोर्ट को कचरे के डिब्बे में डाल रहे हैं। कल वे संसद के किसी अधिनियम को कचरे के डिब्बे में डाल देंगे। फिर वे उच्चतम न्यायालय के किसी निर्णय को कचरे में फेंक देंगे। जैसा कि वे एक बार कर चुके हैं। प्रधानमंत्री के हम में उच्चतम न्यायालन ने फैसला नहीं दिया तो आपातकाल लगा दिया। संविधान तोड़ दिया। तो क्या आप उसी तरफ फिर बढ़ रहे हैं, लेकिन अब हम ऐसा नहीं होने देंगे। हम जनता को बताएंगे कि देखो क्या हो रहा है। इसमें ये घबड़ाए हुए हैं, क्योंकि उनके असली इरादे इससे साफ हो रहे हैं।

सवाल - जिन लोगों ने हंगामा कर समिति का अपमान किया है, क्या आप उनके खिलाफ विशेषाधिकार हनन की सूचना देंगे? क्योंकि यह समिति संसद का प्रतिनिधित्व कर रही थी, और इसका अपमान संसद का अपमान है?
जवाब - यह प्रश्न हमारे सामने आया है। इस पर मैं संविधान विशेषज्ञों से सलाह ले रहा हूं।

सवाल - इस रिपोर्ट से जैसा विवाद खड़ा हुआ है उससे क्या समिति में दलगत विभाजन का खतरा पैदा हो गया है?
जवाब - यह तो कांग्रेस ने किया है और यह अनुचित है। दरअसल, प्रत्येक समिति में सत्तापक्ष का बहुमत होता है। इसका मतलब यह कि हर संसदीय समिति उसक अंगूठे के नीचे चले। हम ऐसा नहीं होने देंगे। और यदि यही इच्छा है तो सभी संसदीय समितियां बंद कर दें। और सरकार चलाएं। यह तो सत्तापक्ष को तय करना होगा कि लोकतंत्र चले या नहीं। संसदीय समितियां अपना काम करें या नहीं।

सवाल - यह रिपोर्ट लोक लेखा समिति की परंपरागत रिपोर्ट से कई मायने में भिन्न दिखती है। जैसे कि इस रिपोर्ट में अखबारों में छपे लेखों और राडिया के टेप पर दो अध्याय हैं। ऐसा पहले नहीं होता रहा है, तो क्या यह जरूरी था ?
जवाब - यह जरूरी इसलिए था कि एक पत्रकार ने इस मामले को सबसे पहले उजागर किया। और तब सीएजी की रिपोर्ट नहीं थी। ऐसे में वह सबसे प्रमुख आधार है। यदि उससे बात न होती तो कैसे मालूम होता कि एलओआई को लेकर जो प्रक्रिया अपनाई गई इसकी सूचना उसे कैसे मिली। साथ ही जिन लोगों ने टेप्स को छापा उसमें कई महत्वपूर्ण बातें थी। एक यह भी था कि टाटा ने ए. राजा की तारीफ में करुणानिधि को पत्र लिखे। यदि उन्हें राजा की तारीफ में पत्र लिखना था तो वे प्रधानमंत्री को लिखते, आखिर वे प्रधानमंत्री के मंत्री थे। उसमें 600 करोड़ रुपए के रिश्वत की बात का जिक्र है जो करुणानिधि की पत्नी को दिया गया था। तो इन सब बातों को जानना बेहद जरूरी था।

सवाल - 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाले से हुए नुकसान के जो-जो अनुमान है उसका विवरण रिपोर्ट में हैं। पर समिति का अनुमान नहीं है। आखिर वह क्या है?
जबाव - पीएसी के पास ऐसी कोई विशेषज्ञों की टीम नहीं है। जो घाटे का अनुमान लगा पाए। यह काम है टीआरएआई (टेलीकॉम रेगुलेट्री अथॉरिटी) का। उसने एक रिपोर्ट दी है उसके आधार पर वित्त मंत्रालय घाटे का अनुमान निकाल सकता है। हालांकि वित्त मंत्रालय से हमने पूछा तो उसने कहा कि वह नुकसान का हिसाब नहीं लगा सकता है। मेरा कहना है कि यदि वे नहीं निकाल सकते तो कौन निकालेगा। आप सारे देश का नफा-नुकसान निकालते हैं, लेकिन इसका नहीं निकाल सकते। इससे संदेह गहराता है, कि वे क्यों नहीं निकालना चाहते। हमने कहा कि वे टीआरएआई को माध्यम से गणना करे और बताए।
सवाल- रिपोर्ट में अरुण शौरी के एक पत्र और भंडाफोड की बात कही गई है। वह क्या है?


सवाल - अरुण शौरी जिस भंडाफोड की बात कर रहे हैं वह क्या है?
जवाब - हमें क्या पता। अखबारों में यह आया था कि अरुण शौरी ने सीबीआई को एक पत्र लिखा है। हमने सीबीआई से इस बारे में पूछा तो उन्होनंे कहा कि हमारे पास कोई पत्र नहीं है। तो वहीं बात खत्म हो गई।

सवाल - रिपोर्ट में शासन प्रणाली में गहरे दोष पैदा होने के संकेत दिए हैं, क्या वह संसदीय प्रणाली के संकट के दोतक है?
जवाब - मैं पहले ही कह चुका हूं कि ज्यादातर दोष प्रणालीगत है। अगर सरकार पारदर्शिता चाहती है और भ्रष्टाचार मुक्त प्रशासन चाहती है तो उसे सुधार करने होंगे। हमारे जांच के दायरे में यह नहीं है कि संसदीय प्रणाली ठीक है या नहीं, बल्कि जांकर जो सीमित विषय रहा है उसमें जो गड़बड़ियां आई है, उसका उल्लेख किया है। नीतियों पर विचार करना पीएसी के अधिकार क्षेत्र में नहीं है।

सवाल- रिपोर्ट से एक बात और निकलकर आ रही है। वह यह है कि प्रधानमंत्री नाम की जो संस्था है वह आज कमजोर दिख रही है। इस पर आपकी क्या राय है?
जवाब - यह कमजोर है या ताकतवर है। इसका विश्लेषण हम नहीं कर रहे हैं। दरअसल, जो प्रणाली है और उसमें जो स्थिति है, यहां हम केवल उसकी बात कर रहे हैं। कमजोर और ताकतवर होने का विश्लेषण तो संसद और जनता करेगी। यहां तो हम अपना काम कर रहे थे।

Thursday, June 9, 2011

नहीं रहा चित्रकार


हुसैन चाहते थे कि अपने देश लौटें।
पर स्थितियां ऐसी बनाई गईं कि वे नहीं आ पाए।

Wednesday, June 1, 2011

तीसरे प्रेस आयोग पर बहस शुरू


“आज हम तीसरे प्रेस आयोग की बात इसलिए कर रहे हैं, क्योंकि स्वतंत्र होकर काम करना चाहते हैं। स्वच्छंद हो कर नहीं।”
दिल्ली स्थित प्रज्ञा संस्थान में तीसरे प्रेस आयोग के गठन की मांग को लेकर चर्चा के दौरान वरिष्ठ पत्रकार रामबहादुर राय ने यह बात कही। तब वे एक युवा पत्रकार के सवालों का जवाब दे रहे थे। दरअसल, ऐसा कम देखने में आता है कि किसी बड़ी योजना को लेकर गंभीर विचार मंथन चल रहा हो और उक्त क्षेत्र के नए लोग भी वहां मौजूद हों। पर 29 मई, 2011 को प्रज्ञा संस्थान के सभागार में ऐसा ही मंजर था। यहां वरिष्ठ पत्रकार रामशरण जोशी विविध प्रसंगों का हवाला देते हुए उस वस्तुस्थिति को सामने रख रहे थे, जिससे साफ हो चला था कि तीसरे प्रेस आयोग का गठन समय की जरूर है।

ताज्जुब की बात है कि इस गंभीर चर्चा में जितनी संख्या वरिष्ठ पत्रकारों और बुद्धिजीवियों की थी, उतनी ही संख्या में युवा पत्रकार मौजूद थे। और वे यहां मूक दर्शक या श्रोता मात्र नहीं थे, बल्कि अवसर मिला तो खुलकर हस्तक्षेप भी किया। इससे पहले हमने सराय/सीएसडीएस में भी यह आलम देखा है। वहां रविकांत जैसे लोग भी ऐसा ही हदतोड़ रवैया अख्तियार करते रहे हैं। दरअसल, इन संस्थाओं का यही रिवाज है। युवाओं में इनकी पहचान यूं ही नहीं है। यहां सभी बराबर महत्व पाते हैं। तभी तो युवा विद्रोही टोली स्वतंत्र होकर काम करती हुई इन संस्थाओं में अकसर दिख जाती है।

खैर, प्रज्ञा संस्थान और प्रभाष परंपरा न्यास के तत्वावधान में आयोजित यह तीसरी विचार गोष्ठी थी। इस बार तीसरे प्रेस आयोग के औचित्य पर विचार किया जा रहा था। रामशरण जोशी अपना बीज वक्तव्य दे रहे थे। इस दौरान उन्होंने कहा कि आज प्रेस व मीडिया यानी अखबार, पत्रिका आदि प्रॉडक्ट में रूपांतरित हो चुके हैं। इसमें मटमैली पूंजी का प्रवेश बड़े स्तर पर हो गया है। संपादक नाम की संस्था पर परोक्ष रूप से नियंत्रण रखा जा रहा है। ब्रांड मैनेजर का उदय हो गया है। हालांकि, कई पत्रकारों को ऊंची पगार मिलती है, पर नौकरी की अनिश्चितता बनी रहती है। कुल मिलाकर स्थितियां बिलकुल बदल चुकी हैं। पहले और दूसरे प्रेस आयोग की सिफारिशें अब प्रासंगित नहीं हैं सो तीसरे प्रेस आयोग का गठन समय की जरूर है।

उन्होंने कहा कि अखबारी संस्करणों के इस दौर में समाचारों व मुद्दों का अति स्थानीयकरण एक रणनीति के तहत किया जा रहा है। यह उचित नहीं है। भारतीय समाचार एजेंसियों का अवसान हो चुका है। अपने लंबे वक्तव्य में जोशी ने 19 ऐसे प्रस्ताव सुझाए जिसपर तीसरे प्रेस आयोग द्वारा विचार करने की जरूर है। पहली बात उन्होंने यह कही कि प्रेस परिषद को वैधानिक दृष्टि से शक्ति सम्पन्न बनाया जाए। फिलहाल वह एक ऐसा सांप है, जिससे पास दांत ही नहीं है। दूसरी बात यह कि एक मीडिया समूह को एक ही माध्यम रखने की इजाजत मिले। वह प्रिंट हो सकता है या फिर इलेक्ट्रॉनिक। उन्होंने बोर्ड ऑफ ट्रस्टी के गठन की बात भी उठाई, जो प्रबंधन और संपादक के बीच महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा ताकि संपादकीय अधिकार की रक्षा हो सके। इतना ही नहीं अखबारों के संस्करणों की संख्या निश्चित करना, भाषाई समाचार एजेंसियों की स्थापना, लघु समाचर पत्रों की सुरक्षा सुनिश्चित करना, प्रेस विकास आयोग की स्थापना जैसे प्रस्ताव भी उन्होंने दिए।

जब सुझाव का दौर आया तो रामबहादुर राय ने कहा कि प्रिंट मीडिया में विदेशी पूंजी के निवेश पर गहन अध्ययन होना चाहिए और फिर इसपर रोक लगनी चाहिए। साथ ही इस बात की पड़ताल होनी चाहिए कि किन परिस्थितियों में 25 जून, 2002 को वाजपेयी सरकार ने प्रिंट मीडिया में 26 प्रतिशत विदेशी पूंजी की इजाजत दी। और अब मनमोहन सरकार उसे 26 प्रतिशत को बढ़ाकर 49 प्रतिशत करने जा रही है। इतिहास बताते हुए राय ने कहा कि पहले प्रेस आयोग का गठन 1952 में हुआ था। 1955 में उसने अपनी सिफारिशें दीं। तब प्रिंट मीडिया में विदेशी पूंजी की इजाजत न देने की बात कही गई थी, जिसे नेहरू की सरकार ने माना था। तब विशेष कारणवश मात्र रिडर डाइजेस्ट को ही इसकी इजाजत मिली थी।
गौरतलब है कि दूसरे प्रेस आयोग का गठन 1978 में किया गया था, जिसने अपनी रिपोर्ट 1982 में सौंपी। तब भी प्रिंट मीडिया में विदेशी पूंजी के निवेश की इजाजत नहीं थी। विचार गोष्ठी का संचालन करते हुए राय ने कहा, “आज पत्रकारिता के मुक्ति की बात हो रही है। और इसके लिए ही हम प्रेस आयोग की बात कर रहे हैं। इस विचार मंथन से जो प्रस्ताव तैयार होगा, उसके आलोक में संसद को ज्ञापन देंगे और तीसरे प्रेस आयोग के गठन की मांग करेंगे।” विचार गोष्ठी में वरिष्ठ पत्रकार व गांधीवादी विचारक देवदत्त, जवाहरलाल कौल और बी.बी.कुमार ने भी अपने सुझाव किए। पत्रकार अवधेश कुमार ने जहां वर्तमान पत्रकारिता पर घोर असंतोष व्यक्त किया, वहीं प्रभाष परंपरा न्यास के ट्रस्टी एन.एन ओझा ने कहा कि कोई भी खबर बाजार से गुजरकर ही पाठक तक पहुंचता है। हमें इन बिंदुओं पर भी विचार करना होगा। इस दौरान कई युवा पत्रकारों ने भी अपने विचार व्यक्त किए। सोपान द स्टेप पत्रिका से जुड़े आशीष कुमार अंशु ने कहा कि उन पत्रकारों को भी अपनी संपत्ति सार्वजनिक करनी चाहिए जो पीआईबी से जुड़े हैं और सरकारी सुविधा का भोग करते हैं। वहीं प्रथम प्रवक्ता से जुड़ी श्रुति अवस्थी ने कहा कि आज वह युवा पत्रकार कहां जाए जो किसी बड़े पत्रकारों को देख उनसा बनना चाहता तो है पर संस्थान स्वतंत्र होकर काम करने की इजाजत नहीं देता।

इस घनघोर बहस के बाद प्रस्तावना को और स्पष्ट व नए बिंदुओं को जोड़ने की बात रामशरण जोशी ने कही। कहा गया कि इसका मुकम्मल रूप 12 जून की बैठक में रखा जाएगा। उसी दिन आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी पर उनके शिष्य विश्वनाथ त्रिपाठी द्वारा लिखी पुस्तक ‘व्योमकेश दरवेश’ पर चर्चा होगी।