Friday, September 9, 2011

‘वंदे मातरम्’ एक अवतारी गीत


अन्ना हजारे के आंदोलन से यह भी निकला है कि पीढ़ी चाहे कोई भी हो, ‘वंदे मातरम्’ हमारे जीवन में गहरे बैठा है। इसका किसी को प्रमाण चाहिए तो वह राजधानी दिल्ली के नजारे को देख ले। पिछले दिनों यहां अदभुत नजारा था। जो गीत समारोहों में सिमट गया था वह नया प्रतीक बनकर फिर से उभरा है। कभी यह लोकमानस में राष्ट्रवाद का द्योतक था।

इस गीत का इतिहास निराला है। यह प्रारंभ में वंदना गीत था। बंकिमचंद्र ने इसे 1870 में रचा। उस समय उनके लिए यह रचना एकांत साधना थी। उसके ग्यारह साल बाद ‘आनंद मठ’ में उन्होंने इसे छपवाया। उपन्यास के छपते ही इसे अनूठी रचना मानी गई। वंदे मातरम् की छवि युद्धघोष की बनी, लेकिन वंदे मातरम् को वे ही जानते थे जिन्होंने आनंद मठ पढ़ा था। सालों बाद बंग-भंग के विरोध में जो स्वदेशी की लहर पैदा हुई उसपर वंदे मातरम् तैरने लगा। उस आंदोलन में रवीन्द्रनाथ टैगोर ने वंदे मातरम् को लोकप्रिय बनाने में अग्रणी भूमिका निभाई। 1905 में रक्षाबंधन के दिन निकले जुलूस का उन्होंने नेतृत्व किया। उससे पहले 1896 में वे कलकत्ता कांग्रेस में वंदे मातरम् गा चुके थे। 1905 से 1908 का समय वंदे मातरम् से गूंजता रहा। कैसे कोई गीत लोकमानस में प्रवेश करता है यह कहानी ही वंदे मातरम् के विकास की यात्रा है। यह वह गीत है जो पुस्तक में कैद होकर नहीं रह सका। उसी दौर में यह राष्ट्रीयता को समझाने का जरिया बना। राष्ट्रवादियों ने अंग्रेजी सत्ता से लड़ने का इसे अस्त्र माना। वही दौर है जब अरविंद घोष ने अपनी कल्पना शक्ति का चमत्कार दिखाया और इसके रचयिता बंकिमचंद्र चटर्जी को ‘राष्ट्रवाद का ऋषि’ घोषित किया।

उसी समय में बनारस कांग्रेस हुई। उसके अधिवेशन में वंदे मातरम् को सरला देवी ने गाया। जो रवीन्द्रनाथ टैगोर परिवार की थी। इस तरह एक गीत राष्ट्रवादियों के लिए नारा बनकर उभरा। उस समय के राष्ट्रवादी नेता इसे देश-भक्ति के नए धर्म का मंत्र समझते और बताते थे। अरविंद घोष उसी दौर में वंदे मातरम् पत्रिका का संपादन भी करते थे। जिसे राजद्रोह के आरोप में अंग्रेजों ने जब्त कर लिया। वही समय है जब वंदे मातरम् ने दक्षिण की यात्रा की। तमिल के महान कवि सुब्रह्मण्यम भारती ने 1905 में ही इसे अपनी भाषा में अनुदित किया। उसके बाद तो अनुवादों का क्रम चल पड़ा। मराठी, मलयालम, तेलगू आदि भाषाओं में वंदे मातरम् राष्ट्रीयता का वाहक बनकर पहुंचा। 1915 में मोहनदास करमचंद गांधी जब महात्मा नहीं बने थे तब मद्रास की एक सभा में वंदे मातरम् सुनकर बोले कि ‘आपने जो सुंदर गीत गाया उसे सुनकर हम सब एकदम उछल पड़े। यह हम आप पर है कि कवि ने मातृभूमि के बारे में जो कहा है उसे साकार करने की कोशिश करें।’

आजादी की लड़ाई में जहां वंदे मातरम् भारत भक्ति का माध्यम बना। वहीं एक समय ऐसा आया जब उसमें मूर्ति पूजा के तत्व लोग देखने लगे। उसपर पहला विवाद जिन्ना ने उठाया। जिसे मुस्लिम लीग ने अपने विरोध का मुद्दा बना लिया। आजादी की लड़ाई में मुस्लिम लीग ने वंदे मातरम् का प्रबल विरोध किया। कांग्रेस ने उसे मुस्लिम समाज की भावना से जोड़कर देखा। जिसके कारण जवाहरलाल नेहरू समिति की सिफारिश पर कांग्रेस ने 1937 में इसके कुछ अंशों को निकाल दिया। उस काट-छांट के बाद कांग्रेस ने इसे राष्ट्रगान के रूप में अपनाया। तब से ही वंदे मातरम् पर राजनीतिक विवाद की छाया बनी हुई है। वह उसके साथ चलती रहती है। लेकिन कांग्रेस ने जिन्ना को मुस्लिम समाज का अकेला प्रतिनिधि माना जबकि उसी समय रिजाउल करीम ने 1930 में ‘वंदे मातरम् और आनंद मठ’ की समीक्षा में लिखा कि ‘यह गूंगा को जबान और कलेजे के कमजोर लोगों को साहस देता है।’
उन्होंने यह भी लिखा कि बंकिमचंद्र ने इस गीत से देशवासियों को चिरकालिक उपहार दिया। उस विवाद को परे रखते हुए संविधान सभा ने डॉ. राजेन्द्र प्रसाद की पहल पर जन-गण-मन के साथ इसे भी राष्ट्रगीत का दर्जा दिया।

मानना होगा कि तमाम विवादों के बावजूद वंदे मातरम् में अवतारी क्षमता है। यह अन्ना हजारे के आंदोलन में प्रकट हुई। अन्ना हजारे ने भी विवादों की परवाह नहीं की और वंदे मातरम् को प्रेरणा का नया स्रोत बना दिया। यह प्रकट हुआ कि वंदे मातरम् राष्ट्रीय संस्कृति की गीत रूप में धरोहर है। कोई भी गीत एक सांस्कृतिक कला तथ्य होता है। उसपर राजनीतिक विवाद नजरिए के कारण पैदा किया जाता है। जो उसे स्वदेशी, राष्ट्रीयता और देशभक्ति का प्रतीक मानते हैं उनके लिए वंदे मातरम् मंत्र है। मंत्र वही होता है जिसे समय-समय पर सिद्ध करना पड़ता है। जवाहरलाल नेहरू और जिन्ना को इसमें सांप्रदायिकता दिखी। यह उनकी अपनी राजनीतिक भूमिका थी।


ऐसा भी नहीं है कि अन्ना हजारे ने बहुत दिनों बाद वंदे मातरम् को जन-जन की जुबान पर ला दिया हो। 1997 में ए.आर. रहमान इसे अपने सुरताल में बांधा। 2002 में बीबीसी विश्व सेवा के 25 हजार श्रोताओं ने इसे भारत के दो सर्वाधिक लोकप्रिय गीतों में से एक माना। अन्ना हजारे के आंदोलन ने वंदे मातरम् को एक नया अर्थ दिया है। जाहिर है कि वंदे मातरम् का अर्थ हमेशा इस पर निर्भर करता रहा है कि किस समय और किस उद्देश्य से इसका उपयोग किया जा रहा है। अन्ना की आंधी में यह देश में भ्रष्टाचार को समाप्त करने के नए संकल्प का शंखनाद हो गया है। इस गीत के अतीत की गौरवशाली स्मृतियां अब हमारे वर्तमान को गढ़ने जा रही है।
(वरिष्ठ पत्रकार रामबहादुर राय)

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