Tuesday, September 6, 2011

हारा मन फुदकन में खोजे चेतन


अन्ना हजारे ने जो कार्यक्रम चलाया, उसमें जनता की बहुत भागीदारी रही। विशेषकर नया मध्यवर्ग शहरों में मुखरित हुआ। और वह सक्रिय है। अभी जो कुछ हुआ है उसपर कई तरह की प्रतिक्रियाएं आई हैं। इसे आंदोलन माना जा रहा है। निजी तौर पर अभी मैं इसे कोई आंदोलन नहीं मानता हूं। हां, इसे एक कैंपेन जरूर कहूंगा। जो अन्ना हजारे के व्यक्तिगत अनुभव, उनकी सोच और सामाजिक जिम्मेदारी के आधार पर शुरू हुआ। आज देश के हजारों-लाखों लोगों के मन में बस एक ही सवाल है जो मूलत: भ्रष्टाचार से जुड़ा है। निश्चय ही इस सवाल को सार्वजनिक बनाने में अन्ना का बढ़ा योगदान रहा।

इस कैंपेन की विशेषता ही है कि वह वर्तमान व्यवस्था, सरकार और नेतृत्व के प्रति गहरा शक पैदा करता है और एक तरीके के घबराहट को भी जन्म देता है। यानी यह डिसट्रक्ट भी है और मिसट्रक्स भी। आप देखेंगे कि महात्मा गांधी ने समय-समय पर अंग्रेजों की काफी आलोचना की। इसके बावजूद यह कहा कि हम इनपर भरोसा कर सकते हैं। दरअसल, उनके मन में यह बात कहीं-न-कहीं गहरे बैठी थी कि ब्रिटिश सरकार आपसी सहमति के बाद जिस किसी नतीजे पर पहुंचेगी अंततोगत्वा उसका क्रियान्वयन जरूर करेगी। आज इसपर भी संकट खड़ा हो गया है। सरकार और नेतृत्व पर कोई यकीन करने को तैयार नहीं है। निश्चय ही इसमें कसूर व्यवस्था चलाने वालों का है और यह उनकी बड़ी असफलता है। मैं यह भी कहुंगा कि इस आंदोलन में जो लोग अन्ना के साथ बातचीत कर रहे थे वे राजनैतिक तौर पर परिपक्व नहीं थे। यह देश का दुर्भाग्य ही है।


यह अन्ना का पहला राष्ट्रीय अभियान है। वैसे तो अन्ना अबतक 14 कैंपेन चला चुके हैं। इनमें चार-पांच स्थानीय स्तर के रहे है। कुछेक सूचना के अधिकार कानून को लेकर उन्होंने चलाए थे। पर राष्ट्रीय स्तर पर उनका यह पहला अनुभव है। इसलिए उनकी अपनी सीमा भी है जो उनके अंदर निहित है। हमने देखा कि 28 अगस्त को जो कैंपेन सम्पन्न हुआ, वह उसे अभिव्यक्त भी कर रहा था। उन्हें इस बात का शायद अंदाजा भी नहीं था कि पूरे भारत में लोग उठ खड़े होंगे। यहां एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि व्यवस्था परिवर्तन पर वैकल्पिक व्यवस्था के बारे में भी उन्होंने कोई रूपरेखा नहीं दी है। न ही इस बारे में कोई जानकारी दी है। फिलहाल वे केवल राजनैतिक स्तर पर ही सुधार की बात कर रहे हैं। वह भी केंद्रीय स्तर पर। दूसरी बात यह कि इस कैंपेन में राजनैतिक संभावनाएं काफी कम हैं, क्योंकि जबतक यह उबाल कोई नेतृत्व पैदा नहीं करता है तबतक इस बात की कोई उम्मीद नहीं की जा सकती है। हालांकि इसने जनता को जागृत कर दिया है, लेकिन बुनियादी तबदीली के लिए कोई नेतृत्व ही नहीं है।

सामाजिक स्तर पर भी जो कुप्रथाएं हैं और उसकी वजह से जो भ्रष्टाचार है, उसे किसी कानून से खत्म करना मुमकिन नहीं है। इसके लिए तो सामाजिक सुधार की जरूरत पड़ती है। स्वतंत्रता आंदोलन के समय गांधीजी ने सामाजिक सुधार को लेकर कई प्रयोग किए थे। साथ ही रचनात्मक कार्यों पर बल दिया था। लेकिन इस कैंपेन में सामाजिक आंदोलन की कोई प्रवृति हमें दिखाई नहीं पड़ती है। यहां उपवासों के माध्यम से समाज की चेतना को कुरेदकर सुधार लाने का पहली बार प्रयास किया गया है। वह भी ऐसे व्यक्ति द्वारा जिसकी क्षमता अबतक स्थानीय और राज्य स्तर की चुनौतियों से लड़ने की रही है। यह उनका अवगुन नहीं है, बल्कि सीमा है। जिससे ‘आगे देखो’ जैसी सोच की संभावना यहां नहीं दिखती है। वैसे कई बातें कही गई हैं, फिर भी कोई स्पष्ट विचार या सोच उभरकर सामने नहीं आ रहा है। न तो अन्ना में और न ही उनके सहयोगियों में। हां, इस कैंपेन से प्रभावित होकर समाज के अंदर से वैसे प्रभावी लोग आगे आ जाएं तो बात अलग है। दरअसल जो समाज 64 साल से कभी बोला ही नहीं, वह अब बोल रहा है। हिंदुस्तान में जो हारे हुए और निराश लोग हैं उन्हें इससे एक अवसर नजर आया है। यहां एक कविता याद आती है, “हारा मन फुदकन में खोजे चेतन।”
इतने के बावजूद भारत में सिविल सोसाइटी का अपना महत्व है। वह स्थानीय स्तरों पर विभिन्न समय और रूपों में सक्रिय रहा है। मैं मानता हूं कि सिविल सोसाइटी का सरकार में दखल कम होना चाहिए। पर जब राजनैतिक हालात इतने खराब हो जाएं कि वह अपना काम ही न कर सके तो उन्हें बाहर आना पड़ता है। गत 50 सालों के राजनीतिक चलन से ऐसी स्थिति बनी कि सिविल सोसाइटी को सरकार में दखल देना पड़ा है। इस बिंदु पर अन्ना ने ऐतिहासिक काम किया है। लेकिन सिविल सोसाइटी की तासीर ऐसी होती है कि वह निरंतर कोई देशव्यापी आंदोलन नहीं चला सकता है। इसके लिए तो नेतृत्व की जरूरत होती है। आज इसपर विचार करने का समय है कि इन परिस्थितियों में सिविल सोसाइटी किस तरह इसे आगे ले जाएगी। यह जिम्मेदारी राजनीतिक पार्टीयों की भी है कि वह इसे नेतृत्व प्रदान करे, पर फिलहाल इसकी संभावना नहीं दिख रही है।

दरअसल, इसके अंदर जो संभावनाएं हैं उसे समझने की क्षमता आज के नेतृत्व में नहीं दिख रही है। न ही अभी कोई तिलक, गांधी या फिर आंबेडकर निकलता दिखाई दे रहा है। गत 47 दिनों में विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं और अखबारों में करीब 300 आलेख आ चुके हैं। यह समाज के सजग होने की निशानी जरूर है, पर इसमें भी नई सोच के बीज अभी तक नहीं दिख रहे हैं। फ्रांस और रूस की क्रांति हुई तो कई नई प्रतिभाएं सामने आईं। राजनीति के साथ-साथ कला, साहित्य पर भी उसका प्रभाव पड़ा। अन्ना हजारे के इस आंदोलन का अभी वह प्रभाव नहीं है। सरकारी स्तर पर कुछ कमजोरियां निकलकर आ रही हैं, यह उसी पर केंद्रित है। इसमें विद्यार्थियों की भागीदारी जरूर रही, पर दूसरे छात्र आंदोलनों से इसकी तुलना करें तो इसमें वे लक्षण हमें नहीं मिलेंगे। कुल मिलाकर इससे सामाजिक चेतना की ऐसी कोई जमीन अभी नहीं बनी है जिससे नया पौध निकल आए।

(अन्ना आंदोलन पर मशहूर पत्रकार देवदत्त के विचार)

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