Friday, July 23, 2010

एक खूबसूरत तस्वीर


बस देखते रहें।
नंदिता रमण की वेबसाइट पर मिली।

Wednesday, July 7, 2010

इंतजार वाली फिल्म


ज़ैग़म इमाम के पहले उपन्यास दोजख का विमोचन हो रहा था। इक संपादक लंबी छोड़ रहे थे। अपनी समझ से जानकारी दे रहे थे कि इस मुल्क का मुसलमान आखिर क्या सोचता है। तभी महमूद वहां से उठ चले। सीपी के एक हॉस्पोदां में दानिस के साथ किसी शीतल पेय की चुस्की ले रहे थे। यह मैंने तब देखा जब उनके ही मित्र रविकांत के साथ वहां पहुंचा। सभा से उठ आने की वजह पर उन्होंने रविकांत से कहा, “अब हमें ही सुनना पड़ रहा है कि इस मुल्क का मुसलमान क्या सोचता है।” तब किसी तीसरे ने कहा, “बताइये महसूद क्या सोचते हैं, उन्हें ही नहीं मालूम पर न्यूज चैनल के संपादक को मालूम है।”

खैर, बात आई गई। उसी शाम एक फिल्म की चर्चा हो रही थी, जो कुछ ही दिन पहले पूरी हुई थी। फिल्म के नाम को लेकर जो कुछ चल रहा था, उन बातों को वे अपने मित्र रविकांत से बांट रहे थे। हम तो सुनने वाले थे। लगता है वह फिल्म 13 जुलाई को आ रही है। ऐसे में यदि ठीक-ठीक याद है तो महमूद ने इस बात का जिक्र किया कि फिल्म के शुरुआती कुछेक मिनटों के दृश्य ऐसे हैं जो थोड़े विचित्र लगेंगे। इकबारगी मालूम होगा कि पता नहीं फिल्म कहां ले जा रही है, यहीं एक उत्सुक्ता पैदा लेती है। यकीनन, देश के भीतर और भीतर धंस्ते जाने की कथा रोचक होगी।

Friday, July 2, 2010

मुश्किलें नारियल से कहीं आगे है


इस देश में धर्म का महत्व है, पर जाति उसपर हावी है। उसका महत्व बहुत ज्यादा है। इस देश के किसी भी गांव में तफरीह के दौरान आप किसी का परिचय पूछेंगे तो वह जाति को कहीं अधिक महत्व देता मालूम पड़ेगा। राजनीतिक वैज्ञानिक रजनी कोठारी इस बाबत विस्तार से कह चुके हैं। इस पंक्ति का लेखक भी महसूस कर रहा है कि लोग जाति के रास्ते समाज से जुड़ने का सरल रास्ता अख्तियार करते रहे हैं। उसके लिए धर्म तो बाद की चीज है।

इस देश में जो राजनेता जाति को नहीं जोड़ पाए, और उसकी राजनीति नहीं कर पाए, वे धर्म की राजनीति करने लगे। आप देख लें बसपा प्रमुख मायावती को या फिर शिबू सोरेन। उन्हें राजनीति के लिए धर्म की जरूरत नहीं है। पर हां, लालू प्रसाद यादव और मुलायम सिंह यादव को धर्मनिरपेक्ष बने रहना है, क्योंकि उनमें विचार और जाति के स्तर पर अपनी जाति को जोड़े रखना मुमकिन नहीं हो पा रहा है। भाजपा जिस हिंदुत्व के रास्ते चलने का दवा करती है, वह बड़ी चीज है। हिंदुत्व के उस शिखर तक पहुंचना भाजपा नेताओं के बूते की बात नहीं है। इससे भ्रम पैदा हो रहा है। यहां तो हिंदू के लिए सूफी आंदोलन का उतना ही महत्व है, जितना कि शैव और वैष्णव आंदोलन का है। उन्हें हाजी-अली से भी उतना ही लगाव है जितना महालक्ष्मी मंदिर से। तो यह तय है कि इस देश को वैसा हिन्दू राष्ट्र नहीं बनाया जा सकता जैसा कुछेक लोग चाहते है।

खैर, जिन्हें बिहार का पिछला विधानसभा चुनाव याद है, उन्हें स्मरण होगा कि तब चुनाव प्रचार के समय कहा जा रहा था कि जदयू-भाजपा गठबंधन को वोट न दें। यदि वे जीतते हैं तो सूबे में अल्पसंख्यकों का रहना मुश्किल हो जाएगा। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह तक चुनाव प्रचार के दौरान इस ओर संकेत कर रहे थे। पांच साल बीत गए। अब अगला चुनाव होने वाला है। स्थिति जो बनी वह सबके सामने है। यकीनन, वहां जो कुछेक विकास के काम शुरू हुए, उस दौरान नारियल भी फोड़े गए। पर कोई बवेला नहीं मचा। दरअसल मुश्किलें तो कहीं और पैदा हो रही हैं।

Thursday, July 1, 2010

नारियल पर बात निकली है तो -


चंद रोज पहले दीवान के नामदार लेखक (विनीत कुमार) ने दिल्ली मेट्रो रेलवे के बाबत एक पोस्ट जारी किया। वह नई लाइन की शुरुआत पर तिलक लगाने व नारियर फोड़ने से संबंधित पोस्ट था। उन्होंने हद तक गहरे सवाल उठाए। हम उनके लेखनी की कद्र करते हैं। पर क्या है कि कुछ अपने मन में भी है। सोचता हूं कह दूं।

हमारी शुरुआती पढ़ाई भागलपूर के जिस स्कूल (सीएमएस हाई स्कूल) में हुई वहां कोई पूजा वगैरह नहीं होती थी। अब भी शायद यही आलम है। स्कूल में सरस्वती की मूर्ति भी परिसर से बाहर एक कोने में बैठाई जाती थी। यह उस प्रदेश की बात है, जहां सरस्वती पूजा का छात्रों के लिए खासा महत्व है। इसके बावजूद स्कूल में कभी ऐसे सवाल नहीं उठे कि आखिर सरस्वती की मूर्ति परिसर के बाहर क्यों बिठाई जाती है ? सूबे में ऐसे बहुतेरे स्कूल हैं जहां सरस्वती पूजा नहीं होती है। पर यह सवाल कोई महत्व नहीं रखता कि क्यों नहीं होती या फिर क्यों होती है? दरअसल चर्च के उन अर्ध सरकारी स्कूलों में यह रिवाज बन गया है और इससे कोई फर्क भी नहीं पड़ता है। अतः इससे जुड़े सभी सवाल गैर जरूरी हैं। पर, नारियल फोड़ने पर सवाल होंगे तो वहां भी बाल मन में सवाल उठ सकते हैं। वह स्थिति यकीनन अभी से बुरी होगी।

मैं जिस स्कूल की चर्चा कर रहा था ठीक उसी विद्यालय के सामने एक चौंक (चौराहा) है। नाम है आदमपुर चौंक। वहां जामने से मस्जिद नूमा आकार खड़ा है। एक दफा कुछ लोगों ने वहां शिवजी के प्रतीक को बैठा दिया। गौर करें.इस पर कोई हंगामा नहीं हुआ, जिन लोगों ने ऐसा किया था वे हंसी के पात्र हो गए। अब वह स्थान पूर्ववत है। वहां कई नारियल फोड़े गए थे, पर कोई असर नहीं हुआ।

खैर, इसे भी रहने दें। इस मुल्क में करोड़ों आंगन हैं जहां तुलसी के पौधे लगे हैं। इनमें कई लोग पौधे को प्रणाम कर बाहर निकलते हैं और कई यूं ही। पर इन लोगों में सांप्रदायिक तत्व ढूंढ़ना गैरवाजिब ही होगा। देश की धर्मनिरपेक्षता इतनी कमजोर नहीं है। थोड़ा पहले कह रहा हूं पर जरूरी है- यदि इस देश में राम मंदिर बल से बनाने की कोशिश हुई तो उसका वही हाल होगा जो आदमपुर के उक्त स्थान को हो गया है। क्योंकि आस्था थोपी नहीं जा सकती, वह तो पैदा लेती है। वहां हिंसा का कोई मोल नहीं होता है। वहां तो सिर्फ और सिर्फ सूर, कबीर तुलसी व जायसी की भक्ति का बोलबाला है। देश में सांप्रदायिक हिंसा का जो इतिहास है, उसकी वजहें दूसरी हैं। हां एक सच यह है कि कुछ लोग उस आस्था तक को चोट पहुंचाने में लगे हैं। इससे गंभीर समस्या पैदा हो सकती है।



इस देश में ऊपर से लादे गए धर्मनिरपेक्षता शब्द से पहले भी लोग मजे में रहते थे। तब कोई ट्रेन जलाई गई हो, अहमदाबाद हुआ हो यह जानकार बताएंगे। पर यह सच है तब भी गांव के इस देश में मस्जिद भी थे और मंदिर भी। कई-कई स्थानों पर चर्च भी। दूसरे भी थे। आज भी हैं, पर सबों के मन में एक अटकाव है। ऐसे माहौल में सतर्क लेखन की जरूरत है।

अगला भाग अगले दिन

शुक्रिया