Wednesday, July 7, 2010

इंतजार वाली फिल्म


ज़ैग़म इमाम के पहले उपन्यास दोजख का विमोचन हो रहा था। इक संपादक लंबी छोड़ रहे थे। अपनी समझ से जानकारी दे रहे थे कि इस मुल्क का मुसलमान आखिर क्या सोचता है। तभी महमूद वहां से उठ चले। सीपी के एक हॉस्पोदां में दानिस के साथ किसी शीतल पेय की चुस्की ले रहे थे। यह मैंने तब देखा जब उनके ही मित्र रविकांत के साथ वहां पहुंचा। सभा से उठ आने की वजह पर उन्होंने रविकांत से कहा, “अब हमें ही सुनना पड़ रहा है कि इस मुल्क का मुसलमान क्या सोचता है।” तब किसी तीसरे ने कहा, “बताइये महसूद क्या सोचते हैं, उन्हें ही नहीं मालूम पर न्यूज चैनल के संपादक को मालूम है।”

खैर, बात आई गई। उसी शाम एक फिल्म की चर्चा हो रही थी, जो कुछ ही दिन पहले पूरी हुई थी। फिल्म के नाम को लेकर जो कुछ चल रहा था, उन बातों को वे अपने मित्र रविकांत से बांट रहे थे। हम तो सुनने वाले थे। लगता है वह फिल्म 13 जुलाई को आ रही है। ऐसे में यदि ठीक-ठीक याद है तो महमूद ने इस बात का जिक्र किया कि फिल्म के शुरुआती कुछेक मिनटों के दृश्य ऐसे हैं जो थोड़े विचित्र लगेंगे। इकबारगी मालूम होगा कि पता नहीं फिल्म कहां ले जा रही है, यहीं एक उत्सुक्ता पैदा लेती है। यकीनन, देश के भीतर और भीतर धंस्ते जाने की कथा रोचक होगी।

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