Wednesday, May 27, 2009

पीएमओ का पीआरओ

दीवान व खंभा ब्लाग पर एक निजी समाचार एजेंसी की ओर से चलाई गई एक महत्वपूर्ण स्टोरी (डा. मनमोहन सिहं के शपथ को लेकर) के बाबत कुछ बातें हुई थीं। अनुमान के विपरीत लोगों की प्रतिक्रियाएं आईं। ज्यादा फोन ही आए। अब भी आ जाते हैं। जो मुझे पसंद नहीं।

बहरहाल, एक साथी ने उक्त खबर की मूल कॉपी यानी पूरी खबर से परिचय कराया तो पूरा पढ़कर बड़ा दुख हुआ। खबर दो पारा में है, यानी सौ शब्द होंगे। सरसरी निगाह भी डालें तो हजार के बराबर गलती दिख जाएगी।
खबर में यह बताया गया है कि नेहरू के बाद डा. मनमोहन सिंह ऐसे पहले प्रधानमंत्री हैं जो अपना पांच वर्ष का कार्यकाल पूरा करने के बाद दूसरी बार प्रधानमंत्री चुने गए हैं।


यह बात बारह आनें सही है। पर सोलह आना सही यह है कि डा. सिंह देश के ऐसे पहले प्रधानमंत्री हैं जो बिना चुनाव लड़े प्रधानमंत्री बन गए हैं। इस बात का जिक्र खबर में नहीं है। क्या हिन्दी सर्विस को पीएमओ के पीआर का टेंडर मिला है ? यदि मिला है तो मजे लें। अन्यथा न्यूज धर्म निभाएं। दोनों बातों की जानकारी साथ-साथ दें।

यहां एक गंभीर और मोटी बात यह है कि डा. सिंह की तुलना नेहरू से करना पत्रकारिता के दृष्टिकोण से बड़ी भूल है। नेहरू तीन बार चुनाव जीतकर आए और प्रधानमंत्री बने। डा. सिंह के साथ ऐसी बात नहीं है। नेहरू दशरथ पुत्र भरत की भूमिका में नहीं थे।
वर्तमान समय में राजनीति करवट ले रही है। इसका सही विश्लेषण होना चाहिए। सुना है कि खबर हिन्दी के प्रमुख अरुण आनंद की ओर से संपादित है। बतलाइये संपादक के ऐसे रंग हैं। हालांकि, ऐसी रीति फिलहाल अन्य जगहों पर भी दिख रही है।

कुछ अन्य व्यस्तता की वजह से दोनों खबर आपतक नहीं पहुंचा पाया हूं। वह अगली दफा।

Tuesday, May 26, 2009

श्रीनगर, ढलान से उतरते हुए


मौसम के लिहाज से यह समय श्रीनगर जाने और ठाठ से बीसेक दिन रहने का है। पर भारी मन से ही सही, मुझे वहां से लौटे कुछ दिन बीत गए। दौरा चुनावी था और उसके अपने कायदे थे। खैर! कश्मीर वादी से लौटने के बाद अब कुछ रीता सा अनुभव हो रहा है। सोचता हूं- घूमना भी कायदे से पड़े, तो फिर घूमना क्या ?

वहां से लाई गई चीजें अब भी एक दूरी का भास कराती हैं। वे चेहरे अब भी खूब याद आते हैं जो तफरीह के दौरान वादी में मिले थे। वैसे तो पांच-छह दिनों की मुहलत किसी स्थान के बारे में पक्की राय कामय करने के लिए काफी नहीं है। लेकिन, इन चार-पांच दिनों में वहां की फिजा आपको स्थानीय गाढ़े रंग से हल्का परिचय जरूर करा देगी। इससे पहले कश्मीर जाने को लेकर एक ना-मालूम सा भय उत्पन्न होता था। अजीब सी झिझक पैदा होती थी। इस यात्रा ने इन दोनों चीजों को अब खत्म कर दिया है।

श्रीनगर से बडगाम करीब 35 से 40 किलोमीटर आगे है। इस दूरी को तय करते समय जो कुछ दिखा उससे साफ हो गया कि कश्मीर में हालात बदलें हैं। वादी की जनता अमन और सुकून के साथ अपना पूरा जीवन जीना चाहती है। यहां सुबह-सबेरे स्कूल जाती छात्राओं को देखकर बड़ा ताज्जुब हुआ। इक-बारगी यह सपना सा मालूम पड़ता है। लेकिन, बडगाम जिले के बीरु तहसील में स्कूल जा रही आठवीं कक्षा की एक छात्रा ने पूछने पर ढलान से उतरते हुए बताया, “मैं रोजाना अपनी सहेलियों के साथ स्कूल जाती हूं।” बच्ची के इस जवाब पर गाड़ी चला रहे व्यक्ति ने कहा, “इंसा-अल्लाह हम चाहते हैं कि दुनिया जाने की वादी में हालात अब बदले हैं।”

जम्मू से रवाना हुई हमारी गाड़ी जब श्रीनगर पहुंची तो रात काफी हो चुकी थी। अप्रैल की यह एक बेहद शांत, सूनी रात थी। ठंडी हवा शरीर में अजीब सिहरन पैदा कर रही थी। दरअसल, जवाहर टनल पार करने के बाद जब गाड़ी ढलान से उतर रही थी, तभी से ठंड का आभास हो चला था। ऐसी ठंड दिल्ली में रहते हुए हमलोग नवंबर के आखिरी दिनों में महसूस करते हैं। अंततः हाउस बोट का एक कमरा किराए पर लिया। लेकिन, पूरी रात बारामुला, पुलवामा, श्रीनगर आदि में हुई आतंकवादी घटनाओं से जुड़ी वे खबरें याद आती रहीं, जिसे मैंने कभी अखबारों में पढ़ा था।

खैर, दूसरे दिन शहर घूमते समय मुझे तनिक भी महसूस नहीं हुआ कि मैं वहां एक आउटसाइडर हूं। इस शहर में दो शाम गुजारने के बाद ऐसा लगा कि आप कितने भी गैर-रोमैण्टिक हों, वादी की फिजा आपको जरूर रोमैण्टिक बना देगी। हालांकि, वादी में टूरिस्ट युगल का तांता आना अभी शुरू नहीं हुआ है। पर ऐसा लगता है कि उन दिनों यह शहर सचमुच अभी की अपेक्षा और भी नया व जवान दिखता होगा।

यह पहला अवसर था जब इस यात्रा के दौरान मुझे सूबे की राजनीति के भीतर झांकने का मौका मिला। लेकिन, मुझे लगात है कि इस सफर के दौरान जुटाई गई बहुत-सी यादें व सामान पीछे छोड़ने होंगे। हालांकि, मन इसकी गवाही नहीं देता। ऐसे में हरिवंश राय बच्चन की एक कविता खूब याद आती है- अंगड़-खंगड़ सब अपना ही, क्या जोडूं क्या छोडूं रे।।

Friday, May 22, 2009

यह खबरनविशी है या मख्खनबाजी

डा. मनमोहन सिंह ने जब देश के प्रधानमंत्री पद की शपथ ली तो खबर आई कि उन्होंने अंग्रेजी में शपथ ग्रहण किया। न्यूज चैनल देखने वाले कई लोग भी इसका सीधा प्रसारण देख रहे होंगे। लेकिन, देश की एक निजी समाचार एजेंसी की हिंदी इकाई की तरफ से खबर कुछ यूं जारी हुई-

डा. मनमोहन सिंह ने लगातार दूसरी बार देश के प्रधानमंत्री के रूप में शुक्रवार को शपथ लेकर एक बार फिर देश की बागडोर अपने हाथों में थाम ली है। राष्ट्रपति प्रतिभा देवीसिंह पाटिल ने उन्हें पद व गोपनीयता की शपथ दिलाई। उन्होंने पहले हिन्दी और फिर अंग्रेजी में शपथ ली।


इंट्रो की अंतिम पंक्ति काबिलेगौर है। सभी ने सुना-देखा की डा. सिंह ने शपथ के लिए जिस भाषा का उपयोग किया वह अंग्रेजी थी। हिन्दी-अंग्रेजी का मामला न बने इसलिए शायद तान छेड़ा गया कि शपथ लेते समय डा. सिंह ने हिन्दी भाषा का भी प्रयोग किया। अब जिस आम जनता के वास्ते खबर लिखी गई है वही फैसला करे यह खबरनविशी है य़ा फिर शुरू हो गई मख्खनबाजी।

इस पंक्ति के लेखक को खूब याद है कि उक्त एजेंसी में ही एक सही और पुख्ता खबर देने पर उसे क्या कुछ नहीं सुनना पड़ा था। हिन्दी सर्विस के कर्ताधर्ता ने वेबसाइट से खबर तक हटवा दी थी। जबकि वह निर्देशानुसार था। आखिरकार मैंने संस्थान को छोड़ना ही बेहतर समझा था। आज भी उस खबर की एक कॉपी मेरे पास है।

जल्दी ही दोनों खबरों को एक साथ आपके नजर डालूंगा। क्योंकि, सही फैसला तो जनता-जनार्दन के हाथों ही होगा।

Saturday, May 9, 2009

लाजिम है कि हम भी देखेंगे...


इकबाव बानो की गायकी से मुहब्बत रखने वाले जानते हैं कि फैज उनके पसंदीदा शायर थे। इस विद्रोही शायर को जब जिया उल हक की फौजी हुकूमत ने कैद कर लिया, तब उनकी शायरी को अवाम तक पहुंचाने का काम इकबाल बानो ने खूब निभाया था।
यह बात अस्सी के दशक की है। इकबाल बानो ने लाहौर के स्टेडियम में पचास हजार श्रोताओं के सामने फैज के निषिद्ध नज्म को खूब गाये थे। वह भी काली साड़ी पहनकर। तब वहां की सरकार ने फैज की शायरी पर ही नहीं बल्कि साड़ी पहनने पर भी पाबंदी लगा रखी थी। पर बानो ने इसकी परवाह नहीं की। वह नज्म इस प्रकार हैं-

हम देखेंगे
लाज़िम है कि हम भी देखेंगे
वो दिन कि जिसका वादा है
जो लौह-ए-अजल में लिखा है
हम देखेंगे ...
जब जुल्म ए सितम के कोह-ए-गरां
रुई की तरह उड़ जाएँगे
हम महकूमों के पाँव तले
जब धरती धड़ धड़ धड़केगी
और अहल-ए-हक़म के सर ऊपर
जब बिजली कड़ कड़ कड़केगी
हम देखेंगे ...
जब अर्ज़-ए-खुदा के काबे से
सब बुत उठवाये जायेंगे
हम अहल-ए-सफा, मरदूद-ए-हरम
मसनद पे बिठाए जाएंगे
सब ताज उछाले जाएंगे
सब तख्त गिराए जाएंगे
हम देखेंगे ...
बस नाम रहेगा अल्लाह का
जो गायब भी है हाजिर भी
जो नाजिर भी है मंज़र भी
उठेगा अनलहक का नारा
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो
और राज करेगी ख़ल्क-ए-ख़ुदा
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो
हम देखेंगे ...

इस पाकिस्तानी गायिका का तीन सप्ताह पूर्व निधन हो गया। उनका जन्म दिल्ली में ही सन् 1935 में हुआ था और वे उस्ताद चांद खां की शागिर्द थीं। लेकिन, सन् 1952 में निकाह के बाद वह शौहर के पास पाकिस्तान चली गई थीं।

Thursday, May 7, 2009

दरीबा कलां और 200 रुपया सेर जलेबी


चांदनी चौक इलाके में दरीबा कलां के नुक्कड़ पर है, पुरानी जलेबी वाले की दुकान। साहब, यह दुकान 138 वर्ष पुरानी है! और इसकी लंबाई-चौड़ाई इतनी भर है कि यहां बा-मुश्किल से दो लोग बैठते हैं। जिनमें एक जलेबी तलने का काम करता रहता है। दूसरा दुकान की गद्दी संभाले रहता है।

यहां गर्म-गर्म जलेबी का लुत्फ उठाने वालों को दुकान के बाहर ही खड़ा होना पड़ेगा। इसके बावजूद दरीबा कलां डाकघर के निकट स्थित इस दुकान की खूब ख्याति है। चांदनी चौक से लौटने पर यार-दोस्त जरूर पूछते हैं- भई, वहां जलेबी खाया या नहीं!

इन दिनों दुकान कैलाश चंद्र जैन की देख-रेख में रफ्तार पकड़े हुए है। घंटा भर वहां खड़ा रहा। कैलाश साहब बड़े व्यस्त दिखे। वक्त देखकर तपाक से मेरे पूछने पर उन्होंने बताया, “हमारे पुरखे यानी नेम चंद्र जैन ने इस दुकान को खोला था। वह सन् 1870-71 का जमाना था । तब से अब तक इस इलाके में कई जरूरी बदलाव हुए। लेकिन, यह दुकान अपनी रफ्तार पकड़े हुए है।”

दुकान की पूरी काया देखने पर मालूम पड़ता है कि यहां भी वक्त के साथ जरूरी बदलाव किए गए हैं। रंग-रौगन होते रहे हैं। पर, तंग जगह होने के बावजूद कैलाश जी ने कायदे से जगह का इस्तेमान किया है। आस-पास कूड़ा न फैले इसका भी खूब इंतजाम है।

वैसे, यहां की जलेबी थोड़ी महंगी तो है। लेकिन, जिसने भी इसका स्वाद लिया, वह इसका मुरीद बन गया। दोबारा अपनी जेब ढ़ीली करने से नहीं हिचकिचाता है। कैलाश चंद्र ने बताया, “हमारे यहां दो सौ रुपये प्रति किलोग्राम की दर से जलेबी मिलती है। लोग बड़े चाव से जलेबी खाते हैं और अपने परिजनों के लिए भी लेकर जाते हैं।”

महांगाई के बाबत वे कहते हैं, “ भई महांगी तो है। पर, आज सस्ता ही क्या रह गया है जनाब।” कैलाश जी की बातें तब सच मालूम पड़ती हैं, जब डाकघर के नीचे खड़े होकर देर तक उनकी दुकान में आने-जाने वालों को गौर से देखाता रहता हूं। चांदनी चौके के कई छोटे-बड़े बदलाव की गवाह यह दुकान रोजना सुबह साढ़े आठ बजे मेहमानवाजी के लिए तैयार हो जाती है। और रात के साढ़े नौ बजे तक अपनी ही रफ्तार से चलती रहती है।

देहरी पर


उस पार है
उम्मीद और उजास की,
एक पूरी दुनिया।
अंधेरा तो सिर्फ
देहरी पर है।।

Monday, May 4, 2009

15वीं लोकसभा चुनाव में जगी बनारस की आत्मा


बनारस का न्यारापन जितना उसके नाम में है, उससे अधिक उसकी विभूति में है। जिसका जैसा नजरिया हो वह वैसा माने। यह आजादी यही शहर देता है। याद में यह काशी है। सरकारी कागजों में वाराणसी है। चुनाव आयोग ने इसे वाराणसी संसदीय क्षेत्र नाम दिया है और न. 77.
पंद्रहवीं लोकसभा के लिए डा. मुरली मनोहर जोशी ने काशी को चुना। इस पर खूब बमचख मचा, भाजपा में और बाहर भी।

पहले चरण के चुनाव के दौरान इसके संकेत साफ मिल रहे थे कि डा. जोशी यहां से चुनाव जीत रहे हैं। हालांकि, इसकी घोषणा सोलह मई को होनी है। यहां जो दिखा वह काशी की भावना थी। जो जीतती नजर आई। दागी और दोषी यहां क्यों पिछड़ते नजर आए? वे तो बाहुबली भी हैं। बहुत दिनों तक इसे बनारस गहरे डूबकर खोजेगा कि आखिर ऐसा क्यों हुआ?

यहां लोगों ने जनता की राजनीति और धंधे की राजनीति का फर्क समझा और समझाया। साथ ही धंधे की राजनीति के खतरे को ठीक-ठीक आंका। बनारस अपनी परंपरा में जीता है। उससे रस ग्रहण करता है। लोकतांत्रिक राजनीति में जो खतरे उभर आए हैं उन्हें बनारस ने अपने अनुभवों से पहचाना कि वे उसी तरह के हैं जैसे कभी महामारी हुआ करती थी। उसका नाम चेचक, हैजा, प्लेग कुछ भी हो सकता है। नई महामारी आतंकवाद है।

जिस तरह पहले बनारस वाले गली के नुक्कड़, तिराहे और चौराहे पर टोटका कर महामारी रोकते थे और उसके लिए अनुष्ठान करते थे वही तरीका इस बार चुनावी समर में बनारस ने अपनाया। यह चुनाव बनारस की अपनी इज्जत से जुड़ गया था। इसलिए सामाजिक सहिष्णुता की धारा के मौजूदा प्रतिनिधि सक्रिय हुए। इससे बनारस के बदले मिजाज को समझा जा सकता है।

यही वह खुला रहस्य है जो मतदान के दिन उजागर हुआ। मतदान के नतीजे की जब विधिवत घोषणा होगी तो साफ हो जाएगा कि देश की सांस्कृतिक राजधानी में लोकतांत्रिक आकांक्षा को राह दिखाने का सामर्थ्य है।

यथाकाल पेज का संक्षिप्त अंश

Friday, May 1, 2009

राजनाथ सिंह के नाम वीरेंद्र सिंह का पत्र


हाल ही में भाजपा के पूर्व सांसद वीरेंद्र सिंह पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह के खिलाफ गाजियाबाद से निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में मैदान में उतर गए थे। हालांकि, आडवाणी से मुलाकात करने के बाद उन्होंने अपना नामांकन वापस ले लिया है। यहां प्रस्तुत है उनकी ओर से राजनाथ सिंह को लिखा गया पत्र-

माननीय अध्यक्ष
भारतीय जनता पार्टी
श्री राजनाथ सिंह
सलेमपुर लोकसभा क्षेत्र प्रकरण से मेरी आशंका की पुष्टि हुई है। आपसे मैंने बातचीत में कहा था कि आप अगर नहीं चाहेंगे तो मैं चुनाव नहीं लड़ सकूंगा। इसपर आपका अंदाज हमेशा की तरह बुझौवल वाला बना रहा। मैं भाजपा का कार्यकर्ता हूं। विचारों से प्रेरित और निष्ठा से अडिग। एक राजनीतिक कार्यकर्ता के लिए चुनाव का अवसर चुनौती बनकर आता है। इसे आप भी समझते हैं। लोगों की ही इच्छा थी कि मुझे सलेमपुर में तैयारी करनी चाहिए, क्योंकि परिसीमन से जो बदलाव आया है, वह भाजपा के लिए नई राजनीतिक जमीन मुहैया कराता है। यह सोचकर मैं सक्रिय हुआ। हर मतदान केंद्र पर एक मजबूत टीम खड़ी हुई। ऐसे करीब पांच हजार कार्यकर्ताओं को गहरी निराशा हुई है।

उनमें बेचौनी बड़ रही थी। उनके ही आग्रह पर मैं दिल्ली पहुंचा। ताकि अपने सहयोगियों की भावनाओं से पार्टी नेतृत्व को अवगत करा सकूं। मैं नहीं जानता कि इससे पहले कभी भाजपा में ऐसा हुआ है या नहीं कि पार्टी कार्यकर्ता और नीचे से उपर तक नेतृत्व चाहता हो कि पार्टी लड़े। लेकिन जिसे पार्टी ने कुंजी दे रखी है वह तिजोरी भरने के फिराक में पड़ गया। वह व्यक्ति का लठैत बन गया। मेरा मतलब आपसे है। कौन नहीं जानता कि मार्च के मध्य में बलिया के तमाम कोयला डिपो से रुपए की वसूली कर उसे गाड़ियों में भरकर जब दिल्ली भेजा जा रहा था तो जैसे ही इसकी भनक लगी कि कार्यकर्ता बेचैन होने लगे। उन्होंने मुझे दिल्ली में ही बने कहने के लिए कहा ताकि साजिश सफल न हो जब भाजपा के अध्यक्ष पद पर बैठाया गया व्यक्ति जोड़तोड़ और तिकड़म की अपनी आदत पर पहले की ही तरह अमल करता रहे तो उम्मीद बचेगी कैसे? यही आपने मेरे साथ किया।

आपकी अध्यक्षता में उम्मीदवारों के चयन की प्रक्रिया अगस्त, 2008 में शुरू होनी थी। तबसे मेरे जैसा कार्यकर्ता रोज इम्तीहान में बैठता था और इम्तीहान टलता रहा। सौदेबाजी होती रही। आखिरकार 23 मार्च, 2009 का वह दिन भी आया जब पूरी चुनाव समिति चाहती थी कि सलेमपुर से भाजपा लड़े। वहां जद (यू) का न अंडा है न बच्चा। आप हैं जिन्होंने चमत्कार दिखाया और सजपा के विधान परिषद सदस्य को रातों-रात जद (यू) का उम्मीदवार बनवा दिया। मरे पास अगर पांच करोड़ रुपया होता तो वह सीट पा लेता। जिसे आपने उम्मीदवार बनवाया है, क्या उसके बारे में यह मालूम है कि हत्या के अभियोग में नाम आने पर पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ने उससे किसी तरह का संबंध होने से इनकार किया था? क्या आप यह भी जानते हैं कि सन 2006 में जब उसी चंद्रशेखर ने उसे जेपी स्मारक ट्रस्ट का सचिव बनवाया तो मैंने उनसे लोहा लिया। आप यह भी जानते ही होंगे कि चंद्रशेखऱ से मेरे नजदीकी संबंध रहे हैं। फिर भी उसकी परवाह नहीं की। क्योंकि सवाल जेपी से जुड़ी एक सार्वजनिक संस्था का था, जो ऊंचे आदर्शों से प्रेरित होकर बनाई गई थी। जेपी स्मारक ट्रस्ट को एक पारिवारिक जागीर बनाने की लड़ाई मैंने सार्वजनिक जीवन में सीखे पाठ से लडी। यही अभियान पूरे बलिया में राजनीतिक संधर्ष का जनप्रिय मुद्दा बन गया था। जिसमें माफियाकरण के विनाश के बीज थे । क्या आप यह नहीं महसूस करते कि उस अभियान की आपने और जद यू ने हत्या कर दी है। यह राजनीतिक हत्या है। इसका मुकदमा जनता की अदालत में पहुंचना ही चाहिए।

मुझे मालूम है कि बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और राज्य सभा सदस्य शिवानंद तिवारी ने जद यू के अध्यक्ष शरद यादव से कहा कि वहां भाजपा के वीरेंद्र सिंह काम कर रहे हैं। उन्हें ही लड़ने का हक मिलना चाहिए। मुझे यह भी मालूम है कि लालकृष्ण आडवाणी ने जब जरूरत पड़ी तब साफ-साफ कहा कि सलेमपुर से वीरेंद्र सिंह का अलावा किसी दूसरे को लड़ाने का कोई तुक नहीं है। और आप हैं जो किसी गहरे द्वेषवश कुछ और ही मन में ठाने हुए थे। उसी तरह जैसे आपके मुख्यमंत्रित्व काल में भदोही-मिर्जापुर उपचुनाव में हुआ।
आपकी अध्यक्षता में भाजपा ने उम्मीदवार चयन का अजीब ढंग अपनाया। सलेमपुर का फैसला अप्रैल में सार्वजनिक किया गया, जब सबकुछ हो गया था। मैंने इसी उम्मीद पर सलेमपुर में नामांकन भरा कि निर्णय मेरे पक्ष में होगा। आपने वैसा होने नहीं दिया। जिसका पूरा विवरण मैं बता सकता हूं। जिसकी जानकारी बलिया और दिल्ली में हर उस व्यक्ति को है जो सलेमपुर में दिलचस्पी रखता है।

अध्यक्ष जी, मैं आपके द्वेष का शिकार हो गया हूं। जहां आप कभी चुनाव नहीं जीत सके, वहीं से मैंने दो बार लोकसभा का चुनाव लोगों की मदद से जीता तो इसमें मेरा क्या कसूर है। यह मैं बता दूं कि सलेमपुर से मुझे लोग जिताकर भेजना चाहते थे। आपने भाजपा की एक सीट गंवा दी। आपकी राजनीतिक पसंद से मुझे कोई हैरानी-परेशानी नहीं है। लोगों को है। जौनपुर में कौन राजनीतिक कार्यकर्ता है जो न जानता होगा कि आपने वहां एक दूसरे दल के उम्मीदवार की मदद में करतब दिखाया। भाजपा और देश का जाग्रत समाज जहां लालकृष्ण आडवाणी में अपना खेवनहार देखता है वहीं उसे यह भी पता हो गया कि उस नाव को डुबोने के लिए आप एक चुहे की भूमिका में उतर आए हैं। लेकिन मुझे पूरा भरोसा है कि भाजपा की नाव पार पा जाएगी। सतत् जागरूकता हमारा स्वभाव जो है।

जहां तक मेरा सवाल है, भाजपा में मेरी नियति है। इससे कोई भी हो, खिलवाड़ नहीं कर सकता। चाहे अध्यक्ष पद पर बैठे आप ही क्यों न हों। मैं समझता हूं कि मेरे साथ घोर अन्याय राजनाथ सिंह ने किया है, भाजपा ने नहीं। ..

कई लोग मानते हैं कि हिन्दुस्तान में पार्टी तंत्र अब व्यक्तितंत्र में बनकर रह चुका है। इसके कई साक्ष्य हैं। नजर दौड़ाएं तो इक-बारगी दिख जाएंगे। ऐसे में भाजपा थोड़ी अलग दिखती है। यहां पार्टी अध्यक्ष के किसी गलत फैसले पर कार्यकर्ता बगावत करते है। इसके बावजूद उन्हें बाहर का रास्ता नहीं दिखाया जाता। पूर्व सांसद वीरेंद्र सिंह का विरोध इसका प्रमाण है।

सभार- प्रथम प्रवक्ता