Saturday, January 31, 2009

गंगाजल आपरेशन का सच


डिब्रूगढ़ (असम) से हाल ही में दिल्ली आए एक व्यक्ति से मुलाकात हुई। वे हिन्दी सिनेमा बड़े चाव से देखते हैं। उन्होंने कहा, डिब्रूगढ़ आते-जाते जब भी ट्रेन भागलपुर स्टेशन पहुंचती है तो फिल्म- ‘गंगाजल-द हौली वैपन ’ की खूब याद आती है। यह फिल्म शहर में हुई अंखफोड़वा कांड (गंगाजल आपरेशन) घटना पर आधारित है।

आगे उन्होंने कहा, ‘सोचता हूं कि इस घटना का सच क्या रहा होगा ?’ इस फिल्म के निर्देशन प्रकाश झा हैं। वे यह मानने से इनकार करते रहे हैं कि फिल्म भागलपुर में हुई अंखफोड़वा कांड पर आधारित है। हालांकि वे फिल्म पर घटना के प्रभाव की बात स्वीकारते हैं।

खैर! घटना को तीन दशक बीत गए। लेकिन तब जो सवाज उपजे थे, वे आज भी खड़े हैं। यह समझना जरूरी हो गया है कि आखिर क्यों लोगों को वह घटना यकायक याद आ जाती है। इन सवालों का जवाब सही-सही तलाशने के लिए उन परिस्थितियों को जानना जरूरी है, जिन स्थितियों में यह घटना घटी।

शहर के कोतवाली थाने के एक तात्कालीन पुलिस अधिकारी ने बताया कि घटना की शुरुआत 1979 में भागलपुर जिले के नवगछिया थाने से हुई थी। यहां पुलिस ने गंभीर आरोपों में लिप्त कुछ अपराधियों की आंखों में तेजाब डालकर अंधा कर दिया था। इसके बाद सबौर, बरारी, रजौन, नाथनगर, कहलगांव आदि थाना क्षेत्रों से भी ऐसी खबरें आईं।

ऐसी घटनाएं रह-रहकर अक्टूबर 1980 तक होती रहीं। घटना की जांच कर रही समिति के मुताबिक जिले में कुल 31 लोगों के साथ ऐसा बर्ताव किया गया। इनमें लक्खी महतो, अर्जुन गोस्वामी, अनिल यादव, भोला चौधरी, काशी मंडल, उमेश यादव, लखनलाल मंडल, चमनलाल राय, देवराज खत्री, शालिग्राम शाह, पटेल शाह, बलजीत सिंह जैसे लोग थे। बलजीत सिक्ख समुदाय का था। संभवतः इसलिए 6 अक्टूबर 1980 को उसके साथ ऐसी घटना होने पर मामला राजधानी दिल्ली में खूब उछला। हालांकि यह मामला उक्त समुदाय के किसी एक व्यक्ति के साथ घटित होने मात्र का नहीं था। उस समय तक जनता सरकार चुनाव हारकर सत्ता से बाहर हो गई थी और इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी सत्ता में थी। दुख की बात है कि इस मुल्क में कुछ चीजों को देखने का यही अनकहा चलन बन गया है।

बहरहाल, बाद में दिल्ली स्थित अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) में इन लोगों की आंखों की जांच हुई। इसके बाद डाक्टरों ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि इनकी आंखों को भेदकर उसमें क्षयकारी पदार्थ डाल दिए गए हैं। इससे आंखों की पुतलियां जल गई हैं। नेत्र-गोल नष्ट हो गए हैं, जिससे इन लोगों की दृश्य-शक्ति हमेशा के लिए समाप्त हो गई है।

जानकारी के मुताबिक आंखों को भेदने के लिए टकुआ (बड़ी सुई) नाई द्वारा नख काटने के औजार और साइकिल के स्कोप का इस्तेमाल किया जाता था। कई महीने तक जिला पुलिस ने यह कार्य जारी रखा। इससे मालूम पड़ता है कि राज्य प्रशासन ने अशिक्षा, बेरोजगारी और गरीबी के बीच पनप रही आपराधिक प्रवृत्तियों को खत्म करने का सरल व निहायत अमानवीय रास्ता अख्तियार कर रखा था।

अपराधी प्रवृति के इन लोगों को दिन में शहर के विभिन्न थाना क्षेत्रों में पकड़ा जाता था और रात में उनकी आंखें फोड़ दी जाती थीं। यह जानकारी घटना की जांच के लिए उच्चतम न्यायालय की ओर से भेजी गई आर. नरसिम्हन समिति को जेल में बंद कुछ अंधे कैदियों ने दी थी। इसकी चर्चा समिति ने अपनी रिपोर्ट में भी की है।

राज्य सरकार को इस बात की जानकारी थी। फिर भी वह चुप बैठी रही। 26 अक्टूबर 1979 को अर्जुन को सेंट्रल जेल लाया गया था। उसने 20 नवम्बर 1979 को सीजीएम भागलपुर के नाम आवेदन दिया। जिसमें उसने अपने अंधेपन की जांच कराने की मांग की थी। 30 जुलाई 1980 को अन्य 11 अंधे कैदियों ने भी जांच की मांग करते हुए कानुनी सहायता की याचना की थी।

पर, शहर की अदालत ने यह कहते हुए उनकी याचना को ठुकरा दिया कि ऐसा कोई प्रावधान नहीं है, जिसके तहत इनको कानुनी सहायता दी जाए। हालांकि, मार्च 1979 में उच्चतम न्यायालय ने हुसैनआरा खातून मामले में सभी कैदियों को कानुनी सहायता देने की बात कह चुका था। फिर भी जिला न्यायालय इस फैसले की अंदेखी कर गया, जो संविधान के अनुच्छेद 141 का उल्लंघन था।

राज्य सरकार से एक भारी भूल उस समय भी हुई जब 30 जुलाई 1980 को सेंट्रल जेल के अधीक्षक बच्चुलाल दास की ओर से अंधे कैदियों की जानकारी सरकार को देने के पर कोई ध्यान नहीं दिया गया। यह जानकर ताज्जुब होगा कि राज्य के जेल महानिरीक्षक ने भी अपने दौरे के समय बांका जेल में देखे गए तीन अंधे कैदियों की जानकारी सरकार को दी थी। साथ ही इसे रोकने के लिए आवश्यक कदम उठाने का आग्रह किया था। बिहार सरकार पर इन बातों का कोई असर नहीं हुआ। और 6 अक्टूबर 1980 को बलजीत सिंह और पटेल शाह सहित अन्य आठ कथित अपराधियों को अंधा कर दिया गया।

इस मामले को एस.एन.आबदी और अरुण सिन्हा जैसे पत्रकारों ने खूब उठाया। घटना के बाबत दो मामले उच्चतम न्यायालय में दर्ज किए गए। पहला- अनिल यादव और अन्य बनाम बिहार सरकार(रिट पटिसन संख्या- 5352 / 1980)। दूसरा- खत्री और अन्य बनाम बिहार सरकार (रिट पटिसन संख्या- 5760/ 1980)। न्यायालय में पीड़ितों की पैरवी अधिवक्ता कपिला हिंगोरानी कर रही थीं। बाद में दोषी पाए गए कई पुलिस अधिकारी व कर्मियों को निलंबित कर दिए गए और कईयों का तबादला।

शहर की आम जनता पुलिस अधिकारियों के विरुद्ध की जा रही कार्रवाई के सख्त खिलाफ थी। सन् 1980 के आम चुनाव में नव-निर्वाचित सांसद भागवत झा आजाद के नेतृत्व में जनता ने सरकार के खिलाफ खूब प्रदर्शन किया। वे लोग पुलिस की कार्रवाई को उचित करार दे रहे थे। लोगों का कहना था कि इन अपराधियों को राजनेताओं का संरक्षण प्राप्त था और परिस्थितियों के हिसाब से उनसे निपटने का यह रास्ता सही था।

यकीनन ऐसी घटनाएं किसी समस्या का समाधान नहीं हो सकती हैं। वह तो एक टीस छोड़ जाती है। लेकिन, आज जब देश की सबसे ऊंची पंचायत में कथित अपराधी भी पहुंच रहे हैं। समाज में भय पहले की अपेक्षा बढ़ा है तो जनता-जनार्दन क्या समाधान चुनती है ? यह बात देखऩे वाली होगी। *

ब्रजेश झा

Tuesday, January 27, 2009

सिनामाई गीत से लोकप्रिय हुए कठिन शब्द

हिन्दुस्तानी सिनेमा में गीत को जितना तवज्जह मिला, उतना संसार के किसी भी अन्य फिल्मोद्योग में नहीं मिला। यहां फिल्में आती हैं, चली जाती हैं। सितारे भी पीछे छूट जाते हैं। बस रह जाते हैं तो कुछ अच्छे-भले गीत जो 'अफसाना लिख रही हूं तेरे इंतजार का' गीत की तरह युगों तक बजते रहे। इसमें दो राय नहीं कि आगे भी ऐसी ही संभावनाएं हैं।

बहरहाल, शुरुआती दिनों में बतौर गीतकार जो लोग हिन्दी सिनेमा जगत से जुड़े उनमें ज्यादातर शायर और कवि थे। जैसे- आरजू लखनवी, पं. सुदर्शन, गोपाल सिंह नेपाली, मजाज लखनवी, जोश मलीहाबादी, प्रदीप, शैलेंद्र, साहिर, मजरूह आदि। हालांकि, गीत लिखने के कुछ कहे व कई अनकहे नियम शुरुआती दिनों से ही लागू थे। इस वजह से कई लोगों को ये नगरी रास आई और कईयों को नहीं। किन्तु गीतों के भाषाई निर्माण की प्रक्रिया यहीं से शुरू हुई और निरंतर चलती रही।

गीत लिखते समय दूरस्थ अंचलों में बसने वाले लोगों को भी ध्यान में रखकर अरबी-फारसी के दिलकशी, पुरपेच, उलफत, बदहवासी, मुरदा-परस्त जैसे भारी-भरकम शब्दों के साथ बतियां, छतियां, नजरिया, हमरी, तुमरी जैसे शब्दों का बेजोड़ तरीके से इस्तेमाल किया गया। जिससे आंचलिकता की खूब गंध मिलती रही। जैसे- मत बोल बहार की बतियां, धधक गई मोरी छतियां (प्रेमनगर), सांची कहो मोसे बतियां, कहां रहे सारी रतियां (ट्रैप्ड-1931)। साहिर ने अरबी-फारसी शब्द का कुछ यूं इस्तेमाल किया- ये कूचे ये नीलाम-घर दिलकशी के, ये लूटते हुए कारवां जिन्दगी के। (प्यासा)।

गीतों की भाषा को समृद्ध करने में मजरुह सुल्तानपुरी ने बड़ा योगदान दिया। इन्होंने कई फारसी शब्दों से फिल्मी गीतों को परिचित कराया। जैसे- बंदा-नवाज, वल्लाह, खादिम, आफताब, दिलरूबा, दिलबर, सनम, वादे-सदा आदि। जैसे- माना जनाब ने पुकारा नहीं, वल्लाह जवाब तुम्हारा नहीं (पेइंग-गेस्ट)। आंखों-ही-आंखों में इशारा हो गया, किसी दिलरूबा का नजारा हो गया (सीआईडी)। अब आम नागरिकों की जुबान पर ये शब्द चढ़ चुके हैं। दूसरी तरफ शकील बदायूंनी ने उलफत (अरबी) शब्द का खूब इस्तेमाल किया। जैसे- उलफत की जिन्दगी को मिटाया न जाएगा (दिल्लगी)।

इस तरह हिन्दी सिनेमा से जुड़े उर्दू साहित्यकार कई अरबी-फारसी के कठिन शब्दों का गीतों में सरलता से इस्तेमाल किया। यह एक बड़ी वजह है कि आज अरबी-फारसी के कठिन से कठिन शब्द आम लोगों की जुबान पर हैं।

हालांकि, इसके साथ यह धारणा भी बनती गई कि उर्दू अल्फाल व शायरी के बगैर फिल्मी गीत का लिखा जाना संभव नहीं है। प्रेम, प्यार के स्थान पर मुहब्बत, इश्क का इस्तेमाल जरूरी है। इस धारणा के प्रबल होने के बावजूद धनवान, निर्धन, ह्रदय, प्रिये, दर्पण, दीपक जैसे विशुद्ध हिन्दी शब्द प्रयोग में लाए गए। भरत व्यास, प्रदीप, इंदीवर, नीरज ने इन शब्दों का खूब प्रयोग किया। जैसे- तुम गगन के चंद्रमा हो, मैं धरा की धूल हूं। तुम प्रणय के देवता हो, मैं समर्पित फूल हूं। (सती सावित्री)। इंदीवर ने भी लिखा- चंदन सा बदन, चंचल चितवन या कोई जब तुम्हारा ह्रदय तोड़ दे। इन गीतों की जबर्दस्त कामयाबी ने फिल्म जगत में बन रही उस धारणा को झुठला दिया कि सफल गीतों में उर्दू के शब्दों की बहुलता जरूरी है।

ब्रजेश झा

Sunday, January 25, 2009

जोश के गीत का रंग


हिन्दी सिनेमा में शुरुआती दिनों से ही गीत लिखऩे के कुछ कहे व कई अनकहे नियम लागू थे। जो इस सांचे में ढल गया वह ठठ गया।
जोश मलीहाबादी (शबीर हसन खां) को भी यह दुनिया छोड़नी पड़ी थी। हालांकि, वे एक कामयाब व मशहूर शायर थे। जानकार बताते हैं कि वे सही मायनों में शायराना दिलो-दिमाग लेकर पैदा हुए थे।

खैर! किस्सा कुछ यूं है- जोश ने फिल्म- मन की जीत, के लिए एक गीत लिखा था। जिसके बोल थे- मेरे जोबना का देखो उभार। यह गीत उस समय की मशहूर गायिका शमशाद बेगम को गाना था। लेकिन, गीत में अश्लील बोल होने की वजह से बेगम ने गाने से माना कर दिया। हालांकि थोड़ी हुज्जत के बाद उन्होंने इस गीत को गा दिया, मगर फिर कभी जोश के सामने नहीं आईं। इस गीत को लेकर कई लोगों ने उनकी आलोचना भी की थी।

जोश को अपने लिखे गीत पर कितना दुख हुआ, यह वही जानें। पर इस घटना के बाद उन्होंने कभी किसी फिल्म के लिए गीत नहीं लिखा। जोश का लिखा यह गीत कहीं मिले तो जरूर पढ़ें। क्योंकि, तब आपको यकीन होगा कि फिल्म- 1942 ए लव स्टोर का गीत- एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा। कहां से प्रेरित है और अपने बालीवुड में कैसे-कैसे जाबांज लोग हैं।

बहरहाल जोश की एक रचना का लुत्फ उठाएं-
हमारी सैर---
लोग हंसते.. हैं चहचहाते.. हैं।
शाम को सैर से जब आते हैं।।
लैम्प की रोशनी में यारों को।
दास्तानें......... नई सुनाते हैं।।

हम पलटते हैं जब गुलिस्तां से।
आह.... भरते हैं थरथराते.... हैं।।
मेज पर सर से फेंककर टोपी।
एक कुर्सी पर लेट... जाते हैं।।

आप समझे यह माजरा क्या है?
सुनिये, हम आपको सुनाते हैं।।
वोह लगाते हैं सिर्फ चक्कर ही।
हम मानाजिर से दिल लगाते हैं।

वोह नजर डालते हैं लहरों पर।
और हम तहमें डूब जाते हैं।।
घर पलटने हैं वोह हवा खाकर।
और हम जख्म खाके आते हैं।।

ट्राफिक लाइट पर सैंडविच-ब्वाय


राजधानी के जिन इलाकों से देश के हुक्मरान और नीति-निर्धारक अकसरां गुजरते हैं, उन्हीं इलाकों के चौराहे पर फुटपाती जीवन काट रहे बेसहारा बच्चे अभिजात वर्ग के लिए पत्रिकाएं बेचते दिख जाएंगे।
यकीन न हो तो एक मर्तबा दक्षिणी दिल्ली तफरीह कर आएं।

आमतौर पर इन बच्चों को सैंडविच-ब्वाय के नाम से जाना जाता है जो नाम एकबारगी निजी कंपनियों के मार्केटिंग अधिकारियों का दिया मालूम पड़ता है। दिल्ली के चौराहे पर ये बच्चे देश-विदेश की ख्याति प्राप्त पत्रिकाएं व कुछ किताबें उक्त कंपनियों के कपड़े पहनकर बेचा करते हैं। हालांकि कंपनी का नाम आम लोगों की जुबान पर चढ़ जाने के बाद कंपनियां ये औपचारिकताएं भी भूल जाती हैं।

चौराहे की बत्ती लाल हुई नहीं कि वे बच्चे व्यस्त हो जाते हैं और हरी होने पर सड़क किनारे लग जाते हैं और बत्ती के लाल होने की प्रतिक्षा करते रहते हैं। मोतीबाग, हौज खास, आर के पुरम, पंचशील इंक्लेव जैसे संभ्रांत इलाकों से गुजरते इन्हें देखा जा सकता है।

आईआईटी दिल्ली के पास पत्रिका बेचने वाले ग्यारह वर्षीय मोनू ने बातचीत के दौरान कहा, ये पत्रिकाएं कंपनी वाले देते हैं और साथ में ये कपड़े भी उन्होंने ही दिया हैं।

रोजाना होने वाली आमदनी के सवाल पर उसने तपाक से कहा, पत्रिका नहीं बिकने पर भी रोज 80 रूपये मिलते हैं लेकिन इस टी-शर्ट को पहनना पड़ेगा। यहां टी-शर्ट पहनने की मजबूरी व्यवसाय का दूसरा पहलू बताती है। हालांकि, जब इन बच्चों के शरीर से कंपनी के कपड़े गायब हो जाते हैं, तब भी इनके हाथों से पत्रिकाएं नहीं हटतीं। क्योंकि उनका इरादा इन बच्चों से प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से दिहाड़ी करवाने का रहता है।

ताज्जुब की बात है कि इन बच्चों के हाथ में बाल-मजदूरी समाप्त करने की पैरोकारी करने वाली पत्रिकाएं भी दिखाई पड़ जाती हैं। एक निजी कंपनी के मार्केटिंग अधिकारी ने बताया कि यह सही है कि सैंडविच- ब्वाय के रूप में इन बच्चों का इस्तेमाल कई जगहों पर किया जाता है, क्योंकि ये सरलता से और सस्ते श्रम पर मिल जाते हैं।

इन मासूम बच्चों की रोजाना की जिन्दगी उनकी कश्मकश और जद्दोजहद को दर्शाती है। इनकी तरफ देखते तो सभी हैं। पर इनके बारे में सोचते कम ही लोग हैं। धरातल पर इनकी बेहतरी के लिए कुछ करने वालों की संख्या तो और भी कम है।

ब्रजेश झा

Wednesday, January 21, 2009

भारतीय सिनेमा का सिरमौर कुंदनलाल सहगल

भारतीय सिनेमा का सिरमौर कुंदनलाल सहगल 18 जनवरी 1947 को इस दुनिया को अलविदा कह गए थे। सहगल की मृत्यु के बाद संगीतकार नौशाद अली ने उनके संबंध में कुछ यूं कहा था -

सदाएं मिट गई सारी सदा ए साज बाकी है
अभी दुनिया ए मौसीकी का कुछ एजाज बाकी है
जो नेमत दे गया है तू वो नेमत कम नहीं सहगल
जहां में तू नहीं, लेकिन तेरी आवाज बाकी है।

नौशाद मेरे दिल को यकीं है ये मुकम्मिल
नगमों की कसम आज भी जिंदा है वो सहगल
हर दिल में धड़कता हुआ वह साज है बाकी
वो जिस्म नहीं है मगर आवाज है बाकी
सहगल को फरामोश कोई कर नहीं सकता
वो ऐसा अमर है कभी मर नहीं सकता।

Sunday, January 18, 2009

बज्र देहाद का मशहूर किस्सा व फिल्मी गीत


देश की राजनीतिक पार्टियां आम चुनाव की तैयारी में जुटी हैं। रंग-ढंग वही पुराना है। सांसद अपने निर्वाचन क्षेत्र में ज्यादा समय गुजार रहे हैं। चुनाव प्रचार में तकनीक के इस्तेमाल को महत्व दिया जा रहा है।

ऐसे में भागलपुर लोकसभा क्षेत्र में तफरीह करते समय एक किस्सा व कुछ गाने याद आ गए। जिले के बज्र देहाद में एक किस्सा बड़ा मशहूर है। वो यह कि कभी इस इलाके से कांग्रेस पार्टी के कद्दावर व प्रतिष्ठित नेता भागवत झा आजाद सांसद हुआ करते थे। एक मर्तबा वे क्षेत्र में चुनावी दौरा करते हुए चतरी गांव पहुंचे। उस वक्त गांव के एक चौपाल का नजारा विचित्र था। एक व्यक्ति एक आवारा कुत्ते को पट्टे के सहारे खंभे से बांध रखा था। साथ ही कुत्ते की हल्की पिटाई कर रहा था। इस दौरान उक्त व्यक्ति उस वफादार जानवर को विशेषणों से नवाजते हुए पांच साल बाद आने की वजह भी पूछ रहा था।

हालांकि इलाके में आजाद का बड़ा मान था और अब भी है। लेकिन देहाती-दुनिया में फैले इस किस्से व गीतकार गुलजार द्वारा फिल्म आंधी के लिए लिखे कव्वाली - (सलाम कीजिए, आलीजनाब आए हैं। यह पांच सालों का देने हिसाब आए हैं।) को जोड़कर देखने पर ताज्जुब हुआ। फिलहाल मालूम नहीं कि ये कव्वाली इस देहात में पहले सुनाई दी या ये किस्से गुलजार तक पहले पहुंच गए।

खैर! सही जो भी हो। मूल बात यह है कि देश में बढ़ती राजनीतिक चेतना कव्वाली की इस पंक्ति से साफ होती है। आप स्वयं देख लें- (यह वोट देंगे, मगर अबके यूं नहीं देंगे। चुनाव आने दो हम आपसे निबट लेंगे।) यह नराजगी अपने चरम पर पहुंच विद्रोह का शक्ल अख्तियार करने लगी है। इतने बरसों बाद जब कई जमाने पुराने हो गए, नमालूम कितनी चीजें पीछे छूट गईं, मगर गुलजार द्वारा लिखी कव्वाली नई ताजगी व तेवर के साथ सफेद पोशाकी पर फिट बैठती है।

अलबत्ता मेरा ख्याल है कि थोड़ा वक्त और गुजरेगा तो यह कहीं सुबह का लिखा न मालूम पड़े। आखिरकार गीत अपना धर्म कुछ इसी अंदाज में निभाता है। वह अपनी संश्लिष्टता में सिर्फ संकेत देता है। क्रांति की फसल नहीं खड़ी करता, बल्कि बीज बोता है।

ब्रजेश झा

Friday, January 16, 2009

गुलाम हैदर होते तो गदगद हो जाते !

यकीनन, संगीतकार ए आर रहमान तारीफ के हकदार हैं। वे जाने-अनजाने इसलिए भी तारीफ के काबिल हैं, क्योंकि उन्होंने गोल्डन ग्लोब पुरस्कार जोतकर संगीतकार गुलाम हैदर को सच्ची श्रद्धांजलि दी है। संभवतः कम लोगों को याद हो कि बीता साल यानी वर्ष 2008 हैदर के जन्म का सौवां साल था।

वे पाकिस्तान (सिंध प्रांत) के हैदराबाद शहर में वर्ष 1908 में पैदा हुए थे। यह ताज्जुब की बात है कि एक ऐसे संगीतकार को लगभग भूला दिया गया है, जिन्होंने फिल्मी संगीत को उसके शुरुआती दिनों में बड़े यतन से तैयार किया था। कुछ फिल्मी पत्रकार बड़े सिनेड़ी बने फिरते हैं ! लेकिन, हैदर पर भी एक गंभीर रपट आती, तो बात बनती।

हालांकि, इस गुनाह का भागी मैं खुद भी हूं। पर, अपराध-बोध कुछ कम है। क्योंकि, संपादक की आज्ञा और न्यूज रूम के कायदे ने मुझे ऐसा करने से रोक दिया था। खैर ! यह रोचक कहानी है। इसपर अगली दफा।

फिल्म निर्माता कारदार ने हैदर को वर्ष 1932 में बन रही फिल्म- ´स्वर्ग की सीढ़ी´ में संगीत देने को कहा था। वैसे यह फिल्म ज्यादा चली नहीं थी। शायद याद हो कि इसी वर्ष हिन्दोस्तानी सिनेमा आवाज की दुनिया में दाखिल हुआ था। वर्ष 1941 में फिल्म-खजांची प्रदर्शित हुई। इससे हैदर का बड़ा नाम हुआ।

फिल्मी संगीत को मजबूत आधार देने के लिए उन्होंने शुरुआती दिनों में कुछ अनुठे काम किए। पहला यह कि राजदरबार के कुशल साजिन्दों को इकट्ठा कर एक वादक समूह का निर्माण किया। इसमें पटियाला के उस्ताद फतेहअली खान व सोनीखान नाम के प्रख्यात क्लेरोनेट वादक भी शामिल थे। साथ ही गीतों में कई प्रयोग किए। मसलन उसमें आने वाले अंतरों का तरीका बदल डाला।

पिछले दिनों जब मुंबई पर आतंकी हमले हुए तो कई लोगों को एक गीत खूब याद आया, ´´वतन की राह में वतन के नौजवां शहीद हो....´´। पर इस गीत के संगीतकार को भी किसी ने याद किया हो यह नजर नहीं आया। फिल्म- शहीद (1948) के इस गीत को हैदर ने ही संगीतबद्ध किया था।

जानकार कहते हैं कि हैदर ने बालीवुड में संगीतकारों का खूब मान बढ़ाया। संगीत की उसी निर्मल धारा में बहकर रहमान ने ठीक सौ साल बाद अपनी प्रयोगधर्मिता व हुनर के बूते दुनिया में बालीवुड के संगीतकारों का दर्जा ऊंचा उठा दिया। लोगों को यह मानने पर मजबूर कर दिया कि बालीवुड का संगीतकार भी सर्वश्रेष्ठ की श्रेणी में है। हालांकि, हैदर को गुजरे जमाना हो गया। लेकिन, आज यदि वे होते तो गदगद हो जाते।

ब्रजेश झा।