Tuesday, July 28, 2009

खबरनबिशों की खबरनबीशी और सिनमा


खबरनबीसी की दुनिया को हिंदी सिनेमा ने खूब खंगाला है। इसके कई रंगों से दर्शकों को वाकिफ कराया है। कुंदन शाह ने एक फिल्म बनाई थी। नाम था 'जाने भी दो यारो'। तब इसकी जमकर तारीफ की गई थी। आज भी सिने प्रेमी इस फिल्म को याद करते हैं।

जब यह फिल्म आई तो आम लोगों ने जाना कि अखबार मालिक या संपादक पत्रकारों से निजी फायदे के लिए महत्वपूर्ण दस्तावेज या तस्वीर कैसे हासिल करना चाहता है। छह साल बाद एक और फिल्म आई "मैं आजाद हूं"। टीनू आनंद की इस फिल्म ने दर्शकों को पत्रकारिता के दूसरे सच से परिचित कराया। दर्शकों ने जाना कि पत्रकार जरूरत पड़ने पर झूठे पात्र भी गढ़ता है।

हालांकि इस फिल्म में महिला पत्रकार (शबाना आजमी) अखबार का सर्कुलेशन बढ़ाने के उद्देश्य से ऐसा करती है। लेकिन पत्रकारिता के मूल्य पर ऐसा करना उसे गंवारा नहीं था। यहां अखबार के व्यापार को बढ़ाने के लिए व्यवस्था की पोल खोली जाने लगी। गांव से शहर आए एक आम आदमी को अखबार ने हीरो बनाकर पेश किया था। जब यह फिल्म आई थी तब बोफोर्स घोटाला सुर्खियों में था। आगे भी ऐसी फिल्में आई- ' न्यू देहली टाइम्स', 'पेजथ्री' वगैरह। सिनेमाघऱ इसे दिखाकर पत्रकारिता के ताने-बाने को जानने-समझने का अवसर देता रहा है।

अब जब बीते लोकसभा चुनाव में मीडिया की भूमिका को लेकर बमचक मचा है तो ये फिल्में एकबारगी याद आती हैं। इसे पुनः देखने की जरूरत महसूस होती है। तब मालूम पड़ता है कि सिनेमा जगत ने यानी बॉलीवुड ने कई बार खबरनबिशों की दुनिया की ही खबनबीशी की है। इसकी सूची लंबी है। यहां नैतिकता का भी पाठ पढ़ाया गया है। वर्ष 1984 में प्रदर्शित हुई फिल्म मशाल को कौन भूल सकता है! दिलीप कुमार और अनिल कपूर को लेकर बनाई गई इस फिल्म में पत्रकारिता को अपनी राख से पैदा लेते दिखाया गया है।

अब सवाल उठता है कि खबर की जगह को बेचने से जो आग लगी है, उसकी राख से क्या सार्थक पत्रकारिता जिंदा हो सकेगी ? या फिर जो कुछ हुआ, वह यहां रिवाज बन जाएगा। क्या है न कि सिनेमा को कभी गंभीरता से नहीं लेने का चलन भारी पड़ा है। इससे कई जरूरी भविष्यवाणियां लोगों की समझ में नहीं आईं। इसलिए गत चुनाव में खबरनबिशों की दुनिया आम लोगों को चकमा दे गई।

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