Saturday, June 6, 2009

‘हिवरे बाजार’ इक गांव ऐसा भी


हिवरे बाजार यानी गांधी के सपनों का गांव। इक ऐसा गांव, जहां खुशहाल हिन्दुस्तान की आत्मा निवास करती है। बाजारवाद के अंधे युग में लौ का काम कर रही है। क्या वैसे दिन की कल्पना की जा सकती हैं, जब देश का सात लाख गांव हिवरे बाजार की तरह होगा। उसका अपना ग्राम स्वराज होगा ?


आर्थिक मंदी से इन दिनों दुनिया परेशान हैं। भारत सरकार भी चिंतित है। पर देश का इक गांव मजे में है। वहां के लोगों का इससे कोई सरोकार नहीं। वे रोजगार के लिए पलायन नहीं करते। गांव में रोजना स्कूल की कक्षा लगती है। आंगनवाड़ी रोज खुलती है। राशन की दुकान भी ग्राम सभा के निर्देशानुसार संचालित होती है। सड़कें इतनी साफ कि आप वहां कुछ फेंकने से शर्मा जाएंगे। एक ऐसा गांव जिसे जल संरक्षण के लिए 2007 का राष्ट्रीय पुरस्कार भी चुका है।

इस गांव की सत्ता दिल्ली में बैठी सरकार नहीं चलाती, बल्कि उसी गांव के लोग इसे संचालित करते हैं। इकबारगी यह यूटोपिया लगता होगा। पर महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले के हिवरे बाजार गांव जाएंगे तो आप इस सच से रूबरू हो जाएंगे। और गांधी के सपनों के भारत को जान और समझ पाएंगे। इक शब्द में यह भी कहा जा सकता है कि हिवरे बाजार ग्राम स्वराज का प्रतिनिधि करता है।

आज से 20 वर्ष पहले यानी सन 1989 में इस उजाड़ से गांव को 30-40 पढ़े-लिखे नौजवानों ने संवारने का बीड़ा उठाया। गांव वालों ने उन नौजवानों को पूरा सहयोग दिया। अब देखिए साहब, गांव के नजारे ही बदल गए हैं। बंजर जमीन उपजाऊ हो गई है। एक फसल की जगह दो-दो फसल उगा रहे हैं। गांव के लोगों ने अपने प्रयास से गांव के आसपास 10 लाख पेड़ लगाए। इससे भू-जल स्तर ऊपर आया है और माटी में नमी बढ़ने लगी है। अब यहां फसल क्या, लोग सब्जियां तक उगाते हैं।
पहले यहां लोगों की औसत आमदनी प्रतिवर्ष 800 रुपये थी। अब 28000 रुपये हो गई है। पहले जो दूसरे गांव में जाकर मजूदरी करते अब रोजाना 250-300 लीटर दूध का व्यापार करते हैं।

हिवरे बाजार गांव में राशन ग्रामसभा के निर्देशानुसार सबसे पहले प्रत्येक कार्डधारी को दिया जाता है। यदि उसके बाद भी राशन बच जाता है तो ग्रामसभा तय करती है कि इसका क्या होगा। राशन की दुकान के संचालक आबादास थांगे बेबाकी से कहते हैं कि उन्हें फूड इंस्पेक्टर को रिश्वत नहीं देनी होती है। यह है भई, जलवा।

गांव के पोपट राव कहते हैं, बाहरी लोगों की नजर हमारे गांव के जमीन पर है। अतः हमलोगों ने नियम बना रखा है कि जमीन गांव से बाहर के किसी व्यक्ति को नहीं बेची जाएगी। गांधी के गांव का जरा रंग देखिए! यहां एकमात्र मुसलिम परिवार के लिए भी मसजिद है, जिसे ग्रामसभा ने ही बनवाया है।

यहां सारे फैसले ग्राम संसद लेती है। यकीनन, दिल्ली की संसद में बैठे लोग इससे बहुत सीख सकते हैं। खैर, एक वक्त था जब इस गांव के युवक यह बताने से कतरते थे कि वे हिवरे बाजार के निवासी हैं। आज बाला साहेब रमेश ने अपने नाम के आगे ही 'हिवरे बाजार' लगा रखा है। इसमें दो राय नहीं कि हिवरे बाजार गांधी के सपने को साकार करने के साथ-साथ घने अंधेरे में लौ जलाए हुए है।

विशेष जानकारी संजीव कुमार के पास।

3 comments:

Girindra Nath Jha/ गिरीन्द्र नाथ झा said...

कई दिनों बाद हिंदी ब्लॉग जगत में ऐसी स्टोरी पढ़ने को मिली। पहले सलाम उन नौजवानों को जिन्होंने 20 वर्ष पहले इस गांव में कुछ अलग करने का प्रयास किया। फिर गांव वालों का शुक्रिया कि टांग खिंचने के बदले उन्होंने कदम से कदम को मिलाया।

सचमुच आनंदित हूं, बौरा गया हूं क्या कहूं, कभी वक्त मिलेगा तो हिवरे बाजारा जाऊंगा यदि नहीं होगा तो एक हिवरे बाजार जरूर बनाऊंगा।
सलाम

Zirah said...

वाई अपना हिन्दुस्तान तो हिवरे बाजार में ही बसता है। संजीव जरूर बात करुंगा। oh, ऐसी स्टोरी का तो अब आकाल पड़ गया है।

Unknown said...

बेहतरीन जानकारी